पिछले कई वर्षों में
हमारे देश ने दुनिया में अपना नाम और कद दोनो ऊंचा किया है़, विकास के नाम पर ऊंची ऊंची आलीशान इमारतें, चौड़ी-चौड़ी सड़कें, फ्लाईओवर, मेट्रो वगैरह पर हम गर्व महसूस करते हैं और ज़ाहिर है गर्व की बात ही है। लेकिन जब इस विकास को बिना किसी चश्मे के नंगी आंखों से देखने की कोशिश करो तो सड़क के किनारे फुटपाथ पर, रेलवे स्टेशन पर, बस अड्डे पर और भी खाली पड़े स्थानों पर ठंड से ठिठुरते, गर्मी की तपिश बर्दाश्त करते हुए, बरसात में भीगते हुए हज़ारों लोग दिख जाते हैं जिनके पास रहने का कोई ठिकाना नहीं।
2011 की जनगणना के मुताबिक देश में 17 लाख लोगों के
पास रहने को घर नहीं है..लेकिन अब तो यह आंकड़ा और भी बढ़ता नज़र आ रहा है.. हर
शहर..हर इलाके के पास आपको स़ड़क किनारे ज़िंदगी बसर करने वाले लोग मिल ही
जाएंगे..क्या इनको एक घर में सुकुन से रहने का हक नहीं मिलना चाहिए?? क्या इनकी ज़िंदगी में बदलाव नहीं आना चाहिए??
सड़क किनारे की ज़िंदगी कैसी होती है इसको जानने के लिए मैं कानपुर के गोल चौराहे पर स्थित एक बस्ती में गयी। बाहर से दिखने में एक
उजड़ी सी दिखने वाली यह छोटी सी बस्ती शहर के त्यौहारों में काम आने वाले सामान
तैयार करती है। रावण, होलिका से लेकर गणेश की मूर्ति, चटाई वगैरह बनाकर यहां रहने
वाले लोग अपना गुज़ारा करते हैं। अपने अंदर सपनों की एक हसीन दुनिया संजोए हुए है
इन लोगों के लिए सड़क के किनारे 6 बाई 4 का छप्पर से घिरा कमरा ही इनके सपनों का
आशियाना है। दिन भर की मेहनत के बाद मिलने वाली दो वक्त की रोटी इनके लिए किसी
बड़ी दौलत से कम नहीं है। कुछ बदलाव की आस लगाए
बैठे यह लोग सरकार की अनदेखी से खफ़ा हैं।
विकास तो बहुत होता है हमारे देश ने भी विकास के कई पड़ाव पार किये लेकिन यहां पर बीस-तीस वर्षों से रहने वालों कि स्थिति में कोई सुधार नहीं आया, कई लोग तो ऐसे मिले जिनकी एक दो पीढ़ी इसी तरह गुज़र गई। शिक्षा के अभाव के कारण जागरूकता की भी कमी देखने को मिली। इसी कारण सरकार की योजनाएं इन तक पहुंच ही नहीं पाती। तमाम बातों के बावजूद यह सवाल अभी भी है कि क्या इनको घर का सुख नहीं मिलना चाहिए?