Tuesday, 4 July 2017

आधुनिक युवा और महिला सश्कतीकरण


वर्ष 2016 में सेंटर फॉर द स्टडी आॅफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) ने कोनराड एडेन्यूर स्टीफटुंग (केएएस) के साथ मिल कर ‘भारत में युवाओं की अभिवृत्ति’ विषय पर एक अध्ययन किया। इस सर्वे में पंद्रह से चौंतीस वर्ष के भारतीय युवाओं (देश में युवा आबादी करीब पैंसठ फीसद है) से अनेक सवाल पूछे गए। आंकड़ों के अनुसार अस्सी फीसद युवा ज्यादा चिंतित या असुरक्षित महसूस करते हैं। उनमें चिंता के मुख्य कारण माता-पिता की सेहत, पारिवारिक समस्या, नौकरी और परिवार की संस्कृति को बनाए रखने जैसे मुद््दे हैं। इकतालीस फीसद युवाओं ने माना कि शादीशुदा महिलाओं को काम नहीं करना चाहिए, इक्यावन फीसद मानते हैं कि पत्नियों को हमेशा अपने पतियों की बात सुननी चाहिए। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय युवा सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से विरोधाभासी चरित्र के हैं, निजी स्पेस में तो रूढ़िवादी रुझान रखते हैं और सार्वजनिक स्पेस में आधुनिक होने का दावा करते हैं। आंकड़े बताते हैं कि 61 फीसद युवा स्टाइलिश कपड़े पहनने के शौकीन हैं, 59 फीसद को सबसे आधुनिक फोन रखना पसंद है, 41 फीसद डियो, 39 फीसद फेयरनेस क्रीम के दीवाने हैं। यह एक तथ्य है कि उपभोक्तावाद और नवउदारवाद ने युवाओं में ‘दिखावे की संस्कृति’ को तीव्र किया है। हर्बट मारक्यूजे कहते हैं कि पूंजीवादी समाजों में ‘मिथ्या आवश्यकताओं’ को उत्पन्न किया जाता है और उसका परिणाम गरीबी व दुख के रूप में सामने आता है। आज के समाज में युवा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य इकाइयों का दोहन तो करते हैं, पर अन्य इकाइयों की आवश्यकताओं की पूर्ति में स्वयं को सम्मिलित न करने की प्रवृत्ति भी रखते हैं। इसके कारण सभी प्रकार के संबंध पूरी तरह से औपचारिक व अवैयक्तिक बन जाते हैं जहां संबंधों में प्रतिबद्धता का अभाव होता है।
सर्वे के अनुसार युवाओं के लिए विवाह अब ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं रहा। विवाह को लेकर पूछे गए सवाल पर महज आधी युवा आबादी ने इसे जरूरी बताया, जबकि 2007 में यह आंकड़ा अस्सी फीसद था। वर्तमान में पचास प्रतिशत ने अंतर्जातीय विवाह को स्वीकारा, जबकि 2007 में यह आंकड़ा तीस फीसद के आसपास था। संभवत: युवा पीढ़ी अब किसी प्रकार के बंधन में बंधना नहीं चाहती या कहें कि पारिवारिक जिम्मेदारी का निर्वाह करने से बचने लगी है। परिवार की उपेक्षा, माता-पिता व वृद्ध सदस्यों की उपेक्षा और केवल अपनी ख्वाहिशों को पूरा करने की चाहत ने इस पीढ़ी को अत्यधिक व्यक्तिवादी बना दिया है। यह भी एक तथ्य है कि जीवन साथी के चुनाव में अब युवा धर्म और जाति से परे भी सोचने लगे हैं।सर्वे के अनुसार प्रत्येक तीसरा युवा या तो ज्यादा धार्मिक या बहुत ज्यादा धार्मिक था। यह एक यथार्थ है कि धर्म के पीछे ‘भय का मनोविज्ञान’ काम करता है और युवाओं का अधिक या बहुत अधिक धार्मिक होते जाना इस बात का प्रमाण है कि अनिश्चितता और असुरक्षा के इस दौर में हर कोई डर के मारे धर्म की शरण में जाने को तैयार है। सर्वे में बेरोजगारी और नौकरी को लेकर सवाल किया गया तो 65 फीसद युवाओं की पहली पसंद सरकारी नौकरी ही रही। 19 फीसद युवाओं ने स्वरोजगार की बात कही, केवल 7 फीसद युवाओं ने प्राइवेट सेक्टर में काम करने को प्राथमिकता दी। युवाओं ने बेरोजगारी को देश की सबसे बड़ी समस्या बताया, उसके बाद गरीबी और भ्रष्टाचार को। एक अच्छा सैलरी पैकेज, अच्छी सुविधाएं और उच्च पद देख युवा लोग प्राइवेट नौकरी के प्रति अधिक आकर्षित होते थे, भले ही वहां काम करने के घंटे अधिक होते थे, पर इन आंकड़ों से जाहिर है कि प्राइवेट नौकरी में बढ़ती अनिश्चितता और असुरक्षा के कारण अब सरकारी नौकरी उनकी पहली पसंद हो गई है।
वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने एक तरफ समाजविज्ञानों को हाशिये पर ला दिया और दूसरी तरफ बच्चों/युवाओं में आक्रामकता, भय, असुरक्षा, अलगाव व अविश्वास उत्पन्न किया। क्या इन दोनों परिघटनाओं को कारण-परिणाम के रूप में देखा जा सकता है? वर्तमान दौर में समाज में होने वाली अनेक घटनाओं को इसी संदर्भ में समझने की जरूरत है। यह ‘क्रोध का युग’ है जो नव्य-उदारवादी संस्कृति की देन है और जिसने आक्रामकता, भय, असुरक्षा, अलगाव व अविश्वास को उत्पन्न किया है। इस संस्कृति का सबसे भयानक परिणाम बच्चों तथा युवाओं पर हुआ है क्योंकि इनके पास अनुभवों का अभाव है, इन्होंने समाज का उतार-चढ़ाव या संघर्ष नहीं देखे हैं। शायद इसलिए ये समायोजन नहीं कर पाते और निराशा के शिकार हो जाते हैं। फिर भी कोई गलत राह पकड़ लेते हैं, यहां तक कि आत्महत्या करने से भी नहीं चूकते। शिक्षाशास्त्र का क्षय, कक्षाओं में विद्यार्थियों की अनुपस्थिति, बच्चों व अभिभावकों के बीच और शिक्षकों व विद्यार्थियों के बीच संवाद का कम होना ऐसे पक्ष हैं जिनके परिणामस्वरूप इनका जीवन के यथार्थ को समझना भी मुश्किल हो गया है। बिना समझे विषय को रटना, कक्षा में बिना किसी विमर्श के विषयवस्तु को कट-कॉपी-पेस्ट करना, पास होने या सफलता पाने के लिए शार्टकट अपनाना आदि ऐसे पक्ष हैं जिनके कारण वे पलायनवादी बनते जा रहे हैं। संघर्ष करना तो दूर की बात, वे समायोजन के लिए भी तैयार नहीं हैं। संभवत: इस स्थिति के लिए समाज विज्ञानों की उपेक्षा करने को जिम्मेदार माना जा सकता है। क्योंकि सामाजिक विज्ञान का ज्यादा महत्त्वपूर्ण योगदान नीति-निर्धारण के लिए प्रशिक्षित करने में नहीं बल्कि शिक्षित व समझदार नागरिक तैयार करने में है। अच्छे लोकतंत्र के लिए शिक्षित नागरिक वर्ग का होना अपरिहार्य है। कोई व्यक्तिअच्छा नागरिक होने के गुण अनायास हवा में से नहीं पकड़ता, उन्हें हासिल करने और बढ़ावा देने के लिए एक खास प्रकार की शिक्षा की जरूरत होती है। मेडिकल, इंजीनियरिंग, तकनीकी ज्ञान नौकरी पाने के लिए पर्याप्त हो सकता है, पर अच्छे नागरिक को उस सामाजिक संसार के बारे में भी समझ होना जरूरी है जिसका वह हिस्सा है।
यह भी एक तथ्य है कि बाजारवादी/ पूंजीवादी ताकतें ‘विचारधारा का अंत’, ‘इतिहास का अंत’ की तरह ही ‘समाजविज्ञानों का सीमांतीकरण’ जैसे मिथक जान-बूझ कर प्रसारित कर रही हैं ताकि उन्हें चुनौती न दी जा सके और हम इस मिथक को स्वीकार करके उनके हितों की पूर्ति में सहायक बन सकें। इसलिए बीसवीं सदी में जो सिद्धांत या पद्धतिशास्त्र समाजविज्ञानों में उभरे उनकी अंतर्वस्तु को पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया जा रहा ताकि बाजारवाद को चुनौती न मिले। एडवर्ड सईद भी मानते हैं कि ‘देशज संस्कृति’ को मजबूत करके औपनिवेशिक सत्ता को चुनौती दी जा सकती है, क्योंकि उन्होंने सबसे पहले इसे ही हाशिये पर किया था, क्योंकि केवल यही लोगों को लोगों से जोड़ती है।
युवा पीढ़ी मशीनों अथवा प्रौद्योगिकी का अत्यधिक प्रयोग करने के कारण ‘वर्चुअल विश्व’ के संपर्क में अधिक रहती है जिसके कारण इनका यथार्थ के जीवन से कोई संबंध नहीं रहता। मशीनीकरण ने अलगाव को प्रत्येक व्यक्तित्व का न केवल हिस्सा बनाया बल्कि उसे ‘पिंजरे में बंद व्यक्तित्व’ में बदल दिया जो स्वाभाविकता से जुड़ी क्रियाओं, भावनाओं, कौशल को प्रयुक्तकरना भूल गया। कितना विरोधाभास है कि एक तरफ नई प्रौद्योगिकी युवाओं को समग्र विश्व से जोड़ रही है और दूसरी तरफ उन्हें अपने ही परिवार/समाज से दूर कर रही है, जिसके कारण व्यक्तिवादिता, अलगाव, असुरक्षा, निराशा, भय, अनिश्चितता, अविश्वास की संस्कृति उत्पन्न हुई। फलस्वरूप क्रोध, हिंसा, आक्रामकता को तीव्र कर ‘जोखिम समाज’ को उत्पन्न किया है। पहले समाज को प्रतिमान और मूल्य आकर देते थे और अब प्रौद्योगिकी निर्देशित ताकतें व अति-यथार्थ (हाइपर रियलिटी) आकर देते हैं। इसलिए समाज की परिभाषा व विवेचना के लिए इन सब संदर्भों को देखना होगा।
ज्योति सिडाना
जनसत्ता से साभार 

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