Thursday, 21 December 2017

ज़िंदगी सड़क किनारे की..


पिछले कई वर्षों में हमारे देश ने दुनिया में अपना नाम और कद दोनो ऊंचा किया है़, विकास के नाम पर ऊंची ऊंची आलीशान इमारतें, चौड़ी-चौड़ी सड़कें, फ्लाईओवर, मेट्रो वगैरह पर हम गर्व महसूस करते हैं और ज़ाहिर है गर्व की बात ही है। लेकिन जब इस विकास को बिना किसी चश्मे के नंगी आंखों से देखने की कोशिश करो तो सड़क के किनारे फुटपाथ पर, रेलवे स्टेशन पर, बस अड्डे पर और भी खाली पड़े स्थानों पर ठंड से ठिठुरते, गर्मी की तपिश बर्दाश्त करते हुए, बरसात में भीगते हुए हज़ारों लोग दिख जाते हैं जिनके पास रहने का कोई ठिकाना नहीं।

2011 की जनगणना के मुताबिक देश में 17 लाख लोगों के पास रहने को घर नहीं है..लेकिन अब तो यह आंकड़ा और भी बढ़ता नज़र आ रहा है.. हर शहर..हर इलाके के पास आपको स़ड़क किनारे ज़िंदगी बसर करने वाले लोग मिल ही जाएंगे..क्या इनको एक घर में सुकुन से रहने का हक नहीं मिलना चाहिए?? क्या इनकी ज़िंदगी में बदलाव नहीं आना चाहिए??

सड़क किनारे की ज़िंदगी कैसी होती है इसको जानने के लिए मैं कानपुर के गोल चौराहे पर स्थित एक बस्ती में गयी। बाहर से दिखने में एक उजड़ी सी दिखने वाली यह छोटी सी बस्ती शहर के त्यौहारों में काम आने वाले सामान तैयार करती है। रावण, होलिका से लेकर गणेश की मूर्ति, चटाई वगैरह बनाकर यहां रहने वाले लोग अपना गुज़ारा करते हैं। अपने अंदर सपनों की एक हसीन दुनिया संजोए हुए है इन लोगों के लिए सड़क के किनारे 6 बाई 4 का छप्पर से घिरा कमरा ही इनके सपनों का आशियाना है। दिन भर की मेहनत के बाद मिलने वाली दो वक्त की रोटी इनके लिए किसी बड़ी दौलत से कम नहीं है। कुछ बदलाव की आस लगाए बैठे यह लोग सरकार की अनदेखी से खफ़ा हैं। 

विकास तो बहुत होता है हमारे देश ने भी विकास के कई पड़ाव पार किये लेकिन यहां पर बीस-तीस वर्षों से रहने वालों कि स्थिति में कोई सुधार नहीं आया, कई लोग तो ऐसे मिले जिनकी एक दो पीढ़ी इसी तरह गुज़र गई। शिक्षा के अभाव के कारण जागरूकता की भी कमी देखने को मिली। इसी कारण सरकार की योजनाएं इन तक पहुंच ही नहीं पाती। तमाम बातों के बावजूद यह सवाल अभी भी है कि क्या इनको घर का सुख नहीं मिलना चाहिए?

Tuesday, 19 December 2017

क्या मूल्यों पर आधारित राजनीति अब कभी नहीं दिखेगी?

गुजरात चुनाव के द्वारा देश ने राजनीति का साम दाम दंड भेद सब देख लिया। सत्ता हासिल करने की ललक में किस प्रकार की घटिया से घटिया चीज़ों का सहारा लेना पड़ता है यह भी इस चुनाव से पता चल गया। एक बात तो साफ हो गयी कि देश में मूल्यों पर आधारित साफ-सुथरी राजनीति विलुप्त होने के कगार पर है। यदि कोई राजनीति में उतरना चाहता है तो उसे अपने उसुल, आदर्श किनारे रखने पड़ेंगे।

हालांकि राजनीति को गुजरात चुनाव के परिदृश्य में देखा जाए तो विपक्ष नेता के रुप में उभर रहे राहुल गांधी ने कुछ हद तक मुद्दों पर आधारित राजनीति करने की कोशिश की जो भाजपा के लिए गले की फांस साबित हुई। उन्होंने विकास से लेकर बेरोज़गारी, कपास, किसान, आदिवासी इत्यादि ज्वंलत मुद्दों पर भी सवाल किए लेकिन वह सांप्रदायिकता और मोदी फैक्टर की लहर के आगे इन मुद्दों को लंबे समय तक टिका नहीं पाए।

सवाल यह उठता है कि क्या यही राजनीति है? दुनिया के सबसे मज़बूत लोकतंत्र मे शुमार होने वाले लोकतंत्र के लिए इस प्रकार की राजनीति शोभा देती है? क्या यह हमारे लोकतंत्र के लिए एक बहुत ही बड़ा खतरा नहीं है?


Tuesday, 21 November 2017

क्या ऐसे बनेंगी महिलाएं सश्क्त?

नगर निकाय चुनाव का बिगुल बजते ही हर गली, चौराहों पर रौनक आ गयी, हर कोई अपने अपने हिसाब से अपने प्रत्याशियों की जीत, वोट इत्यादि का अनुमान लगा रहा है। हर बार की तरह इस बार भी कुछ वार्ड की सीटें महिला आरक्षित हो गयी हैं। जिसे महिला भागीदारी का प्रतीक माना जाता है, इस उम्मीद के साथ कि भविष्य में महिला नेत़ृत्व मज़बूत होगा। देश में महिलाओं की स्थिति सुधरेगी इत्यादि।

लेकिन जब तस्वीर का दूसरा रुख देखो तो वास्तविकता इतनी भयानक रुप में सामने आती हे कि महिला सश्क्तीकरण की सारी उम्मीदें चकनाचूर होकर बिखर जाती हैं। कानपुर का बेहद घनी आबादी वाला मुस्लिम बहुल क्षेत्र कर्नलगंज के वार्ड 110 भी इस बार महिला आरक्षित हो गया। किंतु आप क्षेत्र में जाकर देखें तो आपको एक भी महिला की तस्वीर का पोस्टर, बैनर कहीं नहीं नज़र आएगा। ऐसा नहीं है कि कोई महिला चुनाव लड़ने को तैयार नहीं है या नहीं लड़ रही है। हर दूसरे घर से आपको एक महिला उम्मीदवार मिल जाएगी लेकिन पोस्टर, बैनर पर इनके पति, भाई, बेटे ही आपको नज़र आएंगे।

इतना ही हर रोज़, हर घण्टे आपको ढोल ताशे बजाकर जनसंपर्क करने वालों का झुण्ड भी नज़र आएगा लेकिन उसमें आपको कोई महिला नहीं दिखाई देगी। अब सवाल यह उठता है कि क्या यह महिलाएं नेतृत्व करने योग्य नहीं हैं? करोड़ो का राजस्व देने वाले इस क्षेत्र के हर घर में कोई न कोई कारोबार होता है और इनमें 90 प्रतिशत महिलाएं ही होती हैं। वे घरों में सिलाई से लेकर हर प्रकार के कार्य करती मिल जाएंगी। इतना ही नहीं घर के हर छोटे मोटे काम इन ही महिलाओं के ज़िम्मे होते हैं चाहे सुबह सुबह बच्चों को स्कूल पहुंचाना हो या धनिया मिर्चा, अदरक खरीद कर लानी हो, या फिर शादी ब्याह के अहम फैसले लेने हो सारा काम स्वंय महिलाएं ही करती हैं।


जब ज़िंदगी के हर छोटे बड़े फैसले यह महिलाएं ले सकती हैं तो फिर क्यों क्षेत्र का प्रतिनिधत्व नहीं कर सकतीं?  घर के पुरूषों से पूछने पर बहुत ही हादयस्पद जवाब मिलता है, उनका कहना है कि वह अपनी महिलाओं को इस सब चुनावी झंझट में नहीं डालना चाहते, वे केवल उन्हें चुनावी मैदान में इसलिए उतारते हैं क्योंकि कहीं सत्ता उनके हाथ से छीन न जाए।  अभी हाल ही में आई इकोनॉमी टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार भारत लैगिंग समानता के मामले में विश्व में 108 वें नबंर पर है। क्या इस प्रकार से हम देश में महिला सशक्तीकरण कर पाएंगे? या केवल महिलासशक्तीकरण का नारा देकर हमने समझ लिया कि हो गया सश्कत्तीकरण।

Monday, 14 August 2017

न्याय फांसी पर चढ़ चुका है


मैं हुं न्याय, दुनिया में कोई ऐसे व्यक्ति नहीं जो सुबह से लेकर शाम तक में मुझे याद न करे। सब लोग मुझसे इतना प्यार करते हैं कि दिन में एक बार तो ज़रूर मेरा नाम लेते हैं। हर देश, हर समाज, हर समूह, हर व्यक्ति हर नेता यही कहता है कि वह मेरे साथ है, मुझे पसंद करता है, मुझसे प्यार करता है, मेरे साथ खड़ा रहना चाहता है। हर देश ने मेरे लिए अपने अपने तौर पर व्यवस्था कर रखी है ताकि मैं हर किसी को मिल सकूं, इंसानों के चेहरों पर मैं मुस्कान ला सकूं।

यदि मैं आपको ज़्यादा घुमाऊं न और सीधे तौर पर अपने बारे में बताऊं तो मैं वह व्यवस्था हूं जो व्यक्तियों को अन्य व्यक्तियों के साथ, समुहों को अन्य समूहों के साथ, गुणवता को अन्य गुणवता के साथ बांधे रखती है ताकि एक व्यवस्था, एक प्रणाली, एक प्रक्रिया का निर्माण हो सके। दुनिया के दार्शनिकों ने मुझे अलग अलग रूप में परिभाषित किया है। प्लेटो ने मुझे आत्मा का गुण बताया है तो सिसरो ने आंतरिक अच्छाई। अरस्तू ने समानता का स्तर बताया तो रूसो ने मुझे स्वतंत्रता, समानता और कानून का मिश्रण बताया।

जब भारत का नाम मैं सुनता हुं तो सबसे पहले मेरे सामने विश्व के महान व्यक्तियों में से एक बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का चेहरा आता है जिन्होंने अपने देश में मुझे जगह देने के लिए लोगों को प्रेरित किया। ऐसे लोगों तक मुझे पहुंचाने की कोशिश की जिन्हें बरसों से अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी से वंचित रखा गया था, जिन्हें समाज में हीनता की भावना से देखा जाता था जिन्हें समानता का अधिकार नहीं था। उन सभी लोगों का ख्याल कर के उन्होंने एक ऐसा संविघान निर्मित करवाया जहां सब अनेकता में एकता के साथ रह सकें। और उसके बाद मैं भारत और भारतवासियों के बीच घुलमिल कर रहने लगा। इस देश को अपना घर समझने लगा यहां के लोगों को अपना परिवार।

लेकिन फिर धीरे धीरे कर के मैं लोगों के दिलों से फिर दिमाग से और अब याद्दाश्त से पूरी तरह गुम हो गया। लोगों को पुकारता हुं कि आओ मेरा साथ दो, मुझे अकेला न छोड़ो लेकिन कोई मेरी आवाज़ नहीं सुनता, कोई मेरे पास नहीं आता, मै बिल्कुल तन्हा हो गया जैसे सहरा में कोई गुमनाम प्राणी, वह चीखता है लेकिन कोई सुनने वाला नहीं होता, वह तड़पता है लेकिन कोई महसूस करने वाला नहीं होता।

नेता, मंत्री सब मेरे नाम पर वोट मांगते हैं मेरे साथ चलने का लोगों से वादा करते हैं लेकिन कुछ समय बाद भूल जाते हैं। बहुत छटपटाता हुं यह देखकर कि जिस भारत की आज़ादी के समय कल्पना की गयी थी, जिस भारत को लेकर महापुरूषों ने सपने देखें थे 70 साल बाद वह भारत कहीं नहीं दिखता। बल्कि एक ऐसा भारत बन गया जो सांप्रदायिकता को बढ़ावा देता है, जो इंसानियत का गला घोंटता है, जो लोगों को विभाजित करने का प्रयास करता है, जो नफरत को बढ़ावा देता है। फिर भी मैं उम्मीद करता हूं एक नई सुबह अवश्य रौशन होगी उस भारत की जिसके लिए संविधान निर्माताओं ने सपने देखे थें। वह दिन ज़रूर आएगा जब लोग मेरा नाम लेने के साथ ही मेरा साथ देने की भी कोशिश करेंगे, मेरे लिए आवाज़ उठाएगें, मेरे खिलाफ जाने वालों के लिए लड़ पड़ेंगे। वह सुबह ज़रुर आएगी।


Saturday, 8 July 2017

सोशल मीडिया देश की अखंडता को तोड़ने का साधन बन गया है

गत वर्षों में हमने देश में उग्र भीड़ द्वारा कानून हाथ में लिये जाने की कई घटनाओं को देखा है। इनमें अकसर घटनाएं सोशल मीडिया पर फैली अफवाह के कारण घटित हुई हैं। चाहे झारखंड के उत्तम कुमार के तीन भाइयों की पीट पीटकर हत्या का मामला हो या फिर राजस्थान के पहलू खान की हत्या। इन घटनाओं के बाद भड़की हिंसा को कंट्रोल करने के लिए पुलिस को इण्टरनेट सेवाएं बंद करनी पड़ी थीं।

इसी प्रकार कश्मीर में भड़की हिंसा को कंट्रोल करने के लिए भी प्रशासन को इण्टरनेट सेवाओं को बंद करना पड़ता है। प्रशासन और पुलिस अधिकारियों का कहना है कि कानून व्यवस्था बनाए रखने में सोशल मीडिया एक चुनौती साबित हो रही है क्योंकि पिछले कई महीनों के दौरान जितनी भी हिंसक घटनाएं हुई हैं उनमें सोशल मीडिया के ज़रिए ही नफरत फैलाने की कोशिश की गई।
चाहे वह फोटोशॉप के ज़रिए तैयार की गई भड़काऊ तस्वीर हो या फिर लोगों के बीच नफरत पैदा करने वाली पोस्ट हो। सोशल मीडिया ने माहौल खराब करने का काम किया है और हैरानी की बात तो यह है कि सोशल मीडिया के ज़रिए फैलायी जाने वाली अफवाह के शिकार सबसे अधिक पढ़े लिखे लोग हो रहे हैं।

साइबर क्राइम एक्सपर्ट का मानना है कि अभी तक ऐसे कानून नहीं बन पाए हैं जिनके ज़रिए सोशल मीडिया पर अफवाह फैलाने वालों से सख्ती से निपटा जाए। केवल इंफार्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट के ज़रिए सोशल मीडिया पर ज़हर फैलाने वालों पर नकेल नहीं कसी जा सकती है। इसके लिए और भी उपाय किए जाने चाहिए और इसमें पुलिस के साथ-साथ दूसरे संगठनों को भी शामिल किया जाना चाहिए

Tuesday, 4 July 2017

आधुनिक युवा और महिला सश्कतीकरण


वर्ष 2016 में सेंटर फॉर द स्टडी आॅफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) ने कोनराड एडेन्यूर स्टीफटुंग (केएएस) के साथ मिल कर ‘भारत में युवाओं की अभिवृत्ति’ विषय पर एक अध्ययन किया। इस सर्वे में पंद्रह से चौंतीस वर्ष के भारतीय युवाओं (देश में युवा आबादी करीब पैंसठ फीसद है) से अनेक सवाल पूछे गए। आंकड़ों के अनुसार अस्सी फीसद युवा ज्यादा चिंतित या असुरक्षित महसूस करते हैं। उनमें चिंता के मुख्य कारण माता-पिता की सेहत, पारिवारिक समस्या, नौकरी और परिवार की संस्कृति को बनाए रखने जैसे मुद््दे हैं। इकतालीस फीसद युवाओं ने माना कि शादीशुदा महिलाओं को काम नहीं करना चाहिए, इक्यावन फीसद मानते हैं कि पत्नियों को हमेशा अपने पतियों की बात सुननी चाहिए। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय युवा सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से विरोधाभासी चरित्र के हैं, निजी स्पेस में तो रूढ़िवादी रुझान रखते हैं और सार्वजनिक स्पेस में आधुनिक होने का दावा करते हैं। आंकड़े बताते हैं कि 61 फीसद युवा स्टाइलिश कपड़े पहनने के शौकीन हैं, 59 फीसद को सबसे आधुनिक फोन रखना पसंद है, 41 फीसद डियो, 39 फीसद फेयरनेस क्रीम के दीवाने हैं। यह एक तथ्य है कि उपभोक्तावाद और नवउदारवाद ने युवाओं में ‘दिखावे की संस्कृति’ को तीव्र किया है। हर्बट मारक्यूजे कहते हैं कि पूंजीवादी समाजों में ‘मिथ्या आवश्यकताओं’ को उत्पन्न किया जाता है और उसका परिणाम गरीबी व दुख के रूप में सामने आता है। आज के समाज में युवा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य इकाइयों का दोहन तो करते हैं, पर अन्य इकाइयों की आवश्यकताओं की पूर्ति में स्वयं को सम्मिलित न करने की प्रवृत्ति भी रखते हैं। इसके कारण सभी प्रकार के संबंध पूरी तरह से औपचारिक व अवैयक्तिक बन जाते हैं जहां संबंधों में प्रतिबद्धता का अभाव होता है।
सर्वे के अनुसार युवाओं के लिए विवाह अब ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं रहा। विवाह को लेकर पूछे गए सवाल पर महज आधी युवा आबादी ने इसे जरूरी बताया, जबकि 2007 में यह आंकड़ा अस्सी फीसद था। वर्तमान में पचास प्रतिशत ने अंतर्जातीय विवाह को स्वीकारा, जबकि 2007 में यह आंकड़ा तीस फीसद के आसपास था। संभवत: युवा पीढ़ी अब किसी प्रकार के बंधन में बंधना नहीं चाहती या कहें कि पारिवारिक जिम्मेदारी का निर्वाह करने से बचने लगी है। परिवार की उपेक्षा, माता-पिता व वृद्ध सदस्यों की उपेक्षा और केवल अपनी ख्वाहिशों को पूरा करने की चाहत ने इस पीढ़ी को अत्यधिक व्यक्तिवादी बना दिया है। यह भी एक तथ्य है कि जीवन साथी के चुनाव में अब युवा धर्म और जाति से परे भी सोचने लगे हैं।सर्वे के अनुसार प्रत्येक तीसरा युवा या तो ज्यादा धार्मिक या बहुत ज्यादा धार्मिक था। यह एक यथार्थ है कि धर्म के पीछे ‘भय का मनोविज्ञान’ काम करता है और युवाओं का अधिक या बहुत अधिक धार्मिक होते जाना इस बात का प्रमाण है कि अनिश्चितता और असुरक्षा के इस दौर में हर कोई डर के मारे धर्म की शरण में जाने को तैयार है। सर्वे में बेरोजगारी और नौकरी को लेकर सवाल किया गया तो 65 फीसद युवाओं की पहली पसंद सरकारी नौकरी ही रही। 19 फीसद युवाओं ने स्वरोजगार की बात कही, केवल 7 फीसद युवाओं ने प्राइवेट सेक्टर में काम करने को प्राथमिकता दी। युवाओं ने बेरोजगारी को देश की सबसे बड़ी समस्या बताया, उसके बाद गरीबी और भ्रष्टाचार को। एक अच्छा सैलरी पैकेज, अच्छी सुविधाएं और उच्च पद देख युवा लोग प्राइवेट नौकरी के प्रति अधिक आकर्षित होते थे, भले ही वहां काम करने के घंटे अधिक होते थे, पर इन आंकड़ों से जाहिर है कि प्राइवेट नौकरी में बढ़ती अनिश्चितता और असुरक्षा के कारण अब सरकारी नौकरी उनकी पहली पसंद हो गई है।
वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने एक तरफ समाजविज्ञानों को हाशिये पर ला दिया और दूसरी तरफ बच्चों/युवाओं में आक्रामकता, भय, असुरक्षा, अलगाव व अविश्वास उत्पन्न किया। क्या इन दोनों परिघटनाओं को कारण-परिणाम के रूप में देखा जा सकता है? वर्तमान दौर में समाज में होने वाली अनेक घटनाओं को इसी संदर्भ में समझने की जरूरत है। यह ‘क्रोध का युग’ है जो नव्य-उदारवादी संस्कृति की देन है और जिसने आक्रामकता, भय, असुरक्षा, अलगाव व अविश्वास को उत्पन्न किया है। इस संस्कृति का सबसे भयानक परिणाम बच्चों तथा युवाओं पर हुआ है क्योंकि इनके पास अनुभवों का अभाव है, इन्होंने समाज का उतार-चढ़ाव या संघर्ष नहीं देखे हैं। शायद इसलिए ये समायोजन नहीं कर पाते और निराशा के शिकार हो जाते हैं। फिर भी कोई गलत राह पकड़ लेते हैं, यहां तक कि आत्महत्या करने से भी नहीं चूकते। शिक्षाशास्त्र का क्षय, कक्षाओं में विद्यार्थियों की अनुपस्थिति, बच्चों व अभिभावकों के बीच और शिक्षकों व विद्यार्थियों के बीच संवाद का कम होना ऐसे पक्ष हैं जिनके परिणामस्वरूप इनका जीवन के यथार्थ को समझना भी मुश्किल हो गया है। बिना समझे विषय को रटना, कक्षा में बिना किसी विमर्श के विषयवस्तु को कट-कॉपी-पेस्ट करना, पास होने या सफलता पाने के लिए शार्टकट अपनाना आदि ऐसे पक्ष हैं जिनके कारण वे पलायनवादी बनते जा रहे हैं। संघर्ष करना तो दूर की बात, वे समायोजन के लिए भी तैयार नहीं हैं। संभवत: इस स्थिति के लिए समाज विज्ञानों की उपेक्षा करने को जिम्मेदार माना जा सकता है। क्योंकि सामाजिक विज्ञान का ज्यादा महत्त्वपूर्ण योगदान नीति-निर्धारण के लिए प्रशिक्षित करने में नहीं बल्कि शिक्षित व समझदार नागरिक तैयार करने में है। अच्छे लोकतंत्र के लिए शिक्षित नागरिक वर्ग का होना अपरिहार्य है। कोई व्यक्तिअच्छा नागरिक होने के गुण अनायास हवा में से नहीं पकड़ता, उन्हें हासिल करने और बढ़ावा देने के लिए एक खास प्रकार की शिक्षा की जरूरत होती है। मेडिकल, इंजीनियरिंग, तकनीकी ज्ञान नौकरी पाने के लिए पर्याप्त हो सकता है, पर अच्छे नागरिक को उस सामाजिक संसार के बारे में भी समझ होना जरूरी है जिसका वह हिस्सा है।
यह भी एक तथ्य है कि बाजारवादी/ पूंजीवादी ताकतें ‘विचारधारा का अंत’, ‘इतिहास का अंत’ की तरह ही ‘समाजविज्ञानों का सीमांतीकरण’ जैसे मिथक जान-बूझ कर प्रसारित कर रही हैं ताकि उन्हें चुनौती न दी जा सके और हम इस मिथक को स्वीकार करके उनके हितों की पूर्ति में सहायक बन सकें। इसलिए बीसवीं सदी में जो सिद्धांत या पद्धतिशास्त्र समाजविज्ञानों में उभरे उनकी अंतर्वस्तु को पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया जा रहा ताकि बाजारवाद को चुनौती न मिले। एडवर्ड सईद भी मानते हैं कि ‘देशज संस्कृति’ को मजबूत करके औपनिवेशिक सत्ता को चुनौती दी जा सकती है, क्योंकि उन्होंने सबसे पहले इसे ही हाशिये पर किया था, क्योंकि केवल यही लोगों को लोगों से जोड़ती है।
युवा पीढ़ी मशीनों अथवा प्रौद्योगिकी का अत्यधिक प्रयोग करने के कारण ‘वर्चुअल विश्व’ के संपर्क में अधिक रहती है जिसके कारण इनका यथार्थ के जीवन से कोई संबंध नहीं रहता। मशीनीकरण ने अलगाव को प्रत्येक व्यक्तित्व का न केवल हिस्सा बनाया बल्कि उसे ‘पिंजरे में बंद व्यक्तित्व’ में बदल दिया जो स्वाभाविकता से जुड़ी क्रियाओं, भावनाओं, कौशल को प्रयुक्तकरना भूल गया। कितना विरोधाभास है कि एक तरफ नई प्रौद्योगिकी युवाओं को समग्र विश्व से जोड़ रही है और दूसरी तरफ उन्हें अपने ही परिवार/समाज से दूर कर रही है, जिसके कारण व्यक्तिवादिता, अलगाव, असुरक्षा, निराशा, भय, अनिश्चितता, अविश्वास की संस्कृति उत्पन्न हुई। फलस्वरूप क्रोध, हिंसा, आक्रामकता को तीव्र कर ‘जोखिम समाज’ को उत्पन्न किया है। पहले समाज को प्रतिमान और मूल्य आकर देते थे और अब प्रौद्योगिकी निर्देशित ताकतें व अति-यथार्थ (हाइपर रियलिटी) आकर देते हैं। इसलिए समाज की परिभाषा व विवेचना के लिए इन सब संदर्भों को देखना होगा।
ज्योति सिडाना
जनसत्ता से साभार 

Thursday, 15 June 2017

violence spreading through social media

सोशल मीडिया देश की अखंडता को तोड़ने का साधन बन गया है


गत वर्षों में हमने देश में उग्र भीड़ द्वारा कानून हाथ में लिये जाने की कई घटनाओं को देखा है। इनमें अकसर घटनाएं सोशल मीडिया पर फैली अफवाह के कारण घटित हुई हैं। चाहे झारखंड के उत्तम कुमार के तीन भाइयों की पीट पीटकर हत्या का मामला हो या फिर राजस्थान के पहलू खान की हत्या। इन घटनाओं के बाद भड़की हिंसा को कंट्रोल करने के लिए पुलिस को इण्टरनेट सेवाएं बंद करनी पड़ी थीं।

इसी प्रकार कश्मीर में भड़की हिंसा को कंट्रोल करने के लिए भी प्रशासन को इण्टरनेट सेवाओं को बंद करना पड़ता है। प्रशासन और पुलिस अधिकारियों का कहना है कि कानून व्यवस्था बनाए रखने में सोशल मीडिया एक चुनौती साबित हो रही है क्योंकि पिछले कई महीनों के दौरान जितनी भी हिंसक घटनाएं हुई हैं उनमें सोशल मीडिया के ज़रिए ही नफरत फैलाने की कोशिश की गई।

चाहे वह फोटोशॉप के ज़रिए तैयार की गई भड़काऊ तस्वीर हो या फिर लोगों के बीच नफरत पैदा करने वाली पोस्ट हो। सोशल मीडिया ने माहौल खराब करने का काम किया है और हैरानी की बात तो यह है कि सोशल मीडिया के ज़रिए फैलायी जाने वाली अफवाह के शिकार सबसे अधिक पढ़े लिखे लोग हो रहे हैं।

साइबर क्राइम एक्सपर्ट का मानना है कि अभी तक ऐसे कानून नहीं बन पाए हैं जिनके ज़रिए सोशल मीडिया पर अफवाह फैलाने वालों से सख्ती से निपटा जाए। केवल इंफार्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट के ज़रिए सोशल मीडिया पर ज़हर फैलाने वालों पर नकेल नहीं कसी जा सकती है। इसके लिए और भी उपाय किए जाने चाहिए और इसमें पुलिस के साथ-साथ दूसरे संगठनों को भी शामिल किया जाना चाहिए।


लेकिन सवाल यह है कि उस देशवासियों को एकता पाठ पढ़ाने के लिए सख्त कानून की ज़रूरत पड़ रही है जिस देश की रग-रग में एकता अखंडता बसी थी। जिस देश की संस्कृति ने प्रेम और सौहार्द की ऐसी मिसाल कायम की थी कि दुनिया रश्क करती थी। सोशल मीडिया पर हम देशवासी ही तो सक्रिय रहते हैं तो क्या हमारा यह कर्तव्य नहीं बनता कि हम इन नफरत के पुजारियों से बच कर रहें उनके बहकावे में न आयें बिना तहकीकात किये किसी भी पोस्ट पर भरोसा न करें आखिर यह देश हमारा है तो अमन और शांति कायम रखने में हमारा भी सहयोग होना चाहिए।

ज़िंदगी सड़क किनारे की..

पिछले कई वर्षों में हमारे देश ने दुनिया में अपना नाम और कद दोनो ऊंचा किया है़, विकास के नाम पर ऊंची ऊंची आलीशान इमारतें, चौड़ी-चौड़ी ...