एक पूर्ण जीवन व्यवस्था है जो जीवन के तमाम मसलों पर बहस करता है और उनका सही हल पेश करता है। क्योंकि उसकी दी हुई
किसी इंसान की बनाई हुई नहीं है बल्कि उस ईश्वर की दी हुई है जो पूरी क़ायनात का मालिक है। उसी ने मर्द और औरत को बनाया। जीवन जीने के तमाम क़ानून आसमानी किताबों के द्वारा हम तक पहुँचाए और रसूलों के द्वारा उन पर अमल करके ये साबित कर दिया के ये क़ानून इंसानी स्वभाव के तक़ाज़ों को पूरा करने, उसे बाकी रखने और उसे पूरा करने के लिए हैं।
इस्लाम जीवन के तमाम पहलुओं में रहनुमाई करता है और मुसलमानो को एक क़ानून देता है। इन क़ानूनों का एक हिस्सा वह है जिसमे खानदानी निज़ाम के बारे में हिदायतें दी गई हैं। इन्हें अरबी में 'क़वानीनने-अहवाले-शख्सिया' और हिंदी में 'खानदानी क़ानून' और अंग्रेज़ी में
personal law जाता है। भारत में मुस्लिम शासनकाल के दौरान जीवन के अधिकतर विभागों में इस्लामी क़ानून लागू थे लेकिन जब देश की सत्ता अंग्रेज़ों के हाथ में गई तो उन्होंने धीरे धीरे सभी क़ानून ख़त्म करने शुरू कर दिए। पहले फौजदारी क़ानून ख़त्म किया, फिर गवाही का क़ानून और मुआहिदों के क़ानून ख़त्म किये,फिर खानदानी क़ानूनों को बदलने की तैयारी की जाने लगी। उस समय मुसलमानो के ज़बरदस्त विरोध के कारण वो ऐसा नहीं कर पाए और मुसलमानो की मांग पर 1937 में
'शरीअत एप्लीकेशन एक्ट' पास हुआ जिसके तहत निकाह, तलाक़, खुला, मुबारत, फ़स्ख़े निकाह(निकाह ख़त्म हो जाना ), हिज़ानित(लेपालक), हिबा, वसीयत, आदि से सम्बंधित मामलों में अगर दोनों पक्ष मुसलमान हैं तो उनका फैसला इस्लामी शरीअत के मुताबिक़ होगा, चाहे उनके रस्मो रिवाज कुछ भी हों। इसी को अब 'मुस्लिम पर्सनल लॉ' के नाम से जाना जाता है।
देश की आज़ादी के बाद जब संविधान बना तो उसमे 'मूल अधिकार' के तहत सभी नागरिकों के लिए धर्म और अभिवयक्ति की आज़ादी और हर धर्मों के मानने वालों के लिए अपने धर्म पर चलने की आज़ादी की धाराएँ शामिल की गईं। ये धाराएं मुस्लिम पर्सनल लॉ की सुरक्षा की गारंटी देती हैं , लेकिन संविधान के
'मार्गदर्शक सिद्धांत' (Directive Principls) में एक
धारा (धारा 44 ) भी रख दी गई। इसके तहत सरकार देश में 'समान नागरिक सहिंता ' बनाने का प्रयास करेगी। यह दोनों बातें आपस में टकराती हैं, इसी लिए संविधान सभा के मुस्लिम सदस्यों ने उस
समय इसका विरोध किया था लेकिन फिर भी ये धारा संविधान में शामिल रही। इसी के तहत समय समय पर मुस्लिम पर्सनल लॉ को खत्म करके देश में समान नागरिक सहिंता को लागू करने की कोशिश की जाती है और देश की अदालतें भी ऐसे फैसले सुनाती हैं जो मुस्लिम पर्सनल लॉ से टकराते हैं।
आजकल पूरी
मीडिया जगत ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी है। जिसके तहत इस्लाम को बदनाम करने के लिए
'तीन तलाक़' का मुद्दा उछाल कर ये साबित करने की कोशिश की जा रही है कि इस्लाम में औरतों पर बहुत ज़ुल्म होता है। और बेचारी मुस्लिम महिलाएं अज्ञानता के कारण मीडिया के सामने खुद को मज़लूम साबित करने की कोशिश करती हैं। उन्हें खुद ये नहीं पता कि एक बार में तीन तलाक़ देने के ख़िलाफ़ इस्लाम खुद है। दूसरी बात ये कि इस्लाम सिर्फ इकलौता धर्म है जिसमें
मेहर का प्रावधान है। बाकी धर्मो में तो लड़की को विदा करते समय दहेज़ के नाम पर लाखों रूपए नक़द एवं सामान दिया जाता है जबकि इस्लाम में शादी के वक़्त लड़के वाले लड़की को मेहर देते हैं और लड़की इस बात के लिए आज़ाद है कि वह जितनी चाहे मेहर मांग सकती है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ का विरोध करने वालो को गोवा का वो क़ानून नहीं दिखाई पड़ता जिसके तहत यदि महिला 25 साल की आयु में बच्चा नहीं पैदा कर पाती तो उसके पति को अधिकार है कि वह दूसरी शादी कर सकता है। और अगर औरत 30 साल की आयु तक बेटा नहीं पैदा करती तो उसके पति को अधिकार है कि वह दूसरी शादी कर सकता है।
मुस्लिम
महिलाओं के हक़ में लड़ने वालो को ये नहीं दिखाई देता कि हमारे देश में प्रतिदिन 4800 बच्चियाँ कोख़ में मार दी जाती हैं। हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि मैं मुस्लिम बहनों पर ज़ुल्म नहीं होने दूंगा जबकि खुद अपनी बीवी को 35 साल से छोड़ रखा है और तलाक़ भी नहीं दिया। फिर भी मुसलमान तलाक़ देकर औरत को कम से कम आज़ाद तो कर देते हैं। औरत को पूरी आज़ादी होती है
तलाक़ के बाद दूसरी शादी करने की या अपनी मर्ज़ी से जीवन गुज़ारने की।
हमारा
प्रधानमंत्री जी से निवेदन है कि मुस्लिम बहनो की चिंता करने से पहले अपनी पत्नी की चिंता कर लें तो बेहतर होगा. हम इस्लाम के क़ानून से खुश है और एक बावक़ार ज़िन्दगी जी रहे हैं अगर आपको हमारी ये खुशाल ज़िन्दगी ज़ुल्म लगती है तो लगे हम इसी में रहना पसंद करेंगे।