देश का वैचारिक विभाजन
भारतवर्ष का सदियों का इतिहास गवाह है कि यहाँ हमेशा अनेकता में एकता की संस्कृति प्रचलित रही है और यदि इतिहास की बात छोड़ भी दें तो आज के समय में भी कौन सा ऐसा त्यौहार होता है जो केवल एक ही समुदाय विशेष के लोग मनाते हों ?? हम तो उस देश के वासी हैं जहाँ होली की गुझिया चचा जुम्मन के अधूरी है और ईद की सिवई में तब तक मिठास नहीं हो सकती जब तक पड़ोस के हरी चाचा ना चख लें। यही संस्कृति भारतवासियों ने हमेशा से जानी और समझी है इसी साझी संस्कृति के साथ हम पले बढ़े हैं लेकिन ना जाने क्यों देश को अब किसी की नज़र लग गई जो देश में विचारात्मक विभाजन शुरू हो गया। जिस देश ने अनेकता में एकता की मिसाल क़ायम की थी आज वही आपको मोदी समर्थक, वाम समर्थक, संघ समर्थक, अल्पसंख्यक समर्थक इत्यादि के रूप में आपस में भिड़ते दिख जाएंगे। वैचारिक मतभेद तो हमेशा पाया जाता था और यह एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आवश्यक भी है लेकिन वैचारिक विभाजन नहीं था।
अब वैचारिक विभाजन इतना हावी हो गया है कि मध्यमवर्ग के युवाओं में से देश की अवधारणा और उसकी एकता की धुरी गायब हो रही और उसकी जगह विचारधारा ने ले ली है। जबकि अंतर्राष्ट्रीय परिवेष में देखें तो हर जगह राष्ट्र के विकास को अधिक महत्त्व दिया जाता है। यह वाक़ई आर्श्यजनक है कि हमारे देश का युवा इक्कीसवीं सदी में जीने के बावजूद विकास को महत्त्व ना देकर विचारधारा के लिए लड़ रहा है। यह बहुत ही चिंताजनक स्तिथि है के देश के युवा जिनकी आयु १७ से २५ वर्ष के बीच की है वो सबसे अधिक विचारात्मक विभाजन के शिकार हैं। इसकी तुलना में अशिक्षित समुदाय आज भी वैचारिक विभाजन से मुक्त है। विश्वविद्यालयों में उदार मूल्यों को मूलाधार बनाकर जो व्यापक सामाजिक एकता या छात्र एकता विकसित की गई थी आज वो पूरी तरह से गायब है। वहां मूलयहीन चीज़ों पर एकता बढ़ी है। इससे देश के स्नातकों का सामाजिक स्तर पर अवमूल्यन हुआ है और इससे बढ़कर अफ़सोस की बात क्या हो सकती है कि समाज ने छात्रों के अंदर हुए मूल्य विघटन के सवालों पर बाते करना बंद कर दी है। क्या हम देश के भविष्य की नींव मूल्यहीन एकता पर रखना चाहते हैं ??
21st century's bitter truth ..
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