Thursday, 21 December 2017

ज़िंदगी सड़क किनारे की..


पिछले कई वर्षों में हमारे देश ने दुनिया में अपना नाम और कद दोनो ऊंचा किया है़, विकास के नाम पर ऊंची ऊंची आलीशान इमारतें, चौड़ी-चौड़ी सड़कें, फ्लाईओवर, मेट्रो वगैरह पर हम गर्व महसूस करते हैं और ज़ाहिर है गर्व की बात ही है। लेकिन जब इस विकास को बिना किसी चश्मे के नंगी आंखों से देखने की कोशिश करो तो सड़क के किनारे फुटपाथ पर, रेलवे स्टेशन पर, बस अड्डे पर और भी खाली पड़े स्थानों पर ठंड से ठिठुरते, गर्मी की तपिश बर्दाश्त करते हुए, बरसात में भीगते हुए हज़ारों लोग दिख जाते हैं जिनके पास रहने का कोई ठिकाना नहीं।

2011 की जनगणना के मुताबिक देश में 17 लाख लोगों के पास रहने को घर नहीं है..लेकिन अब तो यह आंकड़ा और भी बढ़ता नज़र आ रहा है.. हर शहर..हर इलाके के पास आपको स़ड़क किनारे ज़िंदगी बसर करने वाले लोग मिल ही जाएंगे..क्या इनको एक घर में सुकुन से रहने का हक नहीं मिलना चाहिए?? क्या इनकी ज़िंदगी में बदलाव नहीं आना चाहिए??

सड़क किनारे की ज़िंदगी कैसी होती है इसको जानने के लिए मैं कानपुर के गोल चौराहे पर स्थित एक बस्ती में गयी। बाहर से दिखने में एक उजड़ी सी दिखने वाली यह छोटी सी बस्ती शहर के त्यौहारों में काम आने वाले सामान तैयार करती है। रावण, होलिका से लेकर गणेश की मूर्ति, चटाई वगैरह बनाकर यहां रहने वाले लोग अपना गुज़ारा करते हैं। अपने अंदर सपनों की एक हसीन दुनिया संजोए हुए है इन लोगों के लिए सड़क के किनारे 6 बाई 4 का छप्पर से घिरा कमरा ही इनके सपनों का आशियाना है। दिन भर की मेहनत के बाद मिलने वाली दो वक्त की रोटी इनके लिए किसी बड़ी दौलत से कम नहीं है। कुछ बदलाव की आस लगाए बैठे यह लोग सरकार की अनदेखी से खफ़ा हैं। 

विकास तो बहुत होता है हमारे देश ने भी विकास के कई पड़ाव पार किये लेकिन यहां पर बीस-तीस वर्षों से रहने वालों कि स्थिति में कोई सुधार नहीं आया, कई लोग तो ऐसे मिले जिनकी एक दो पीढ़ी इसी तरह गुज़र गई। शिक्षा के अभाव के कारण जागरूकता की भी कमी देखने को मिली। इसी कारण सरकार की योजनाएं इन तक पहुंच ही नहीं पाती। तमाम बातों के बावजूद यह सवाल अभी भी है कि क्या इनको घर का सुख नहीं मिलना चाहिए?

Tuesday, 19 December 2017

क्या मूल्यों पर आधारित राजनीति अब कभी नहीं दिखेगी?

गुजरात चुनाव के द्वारा देश ने राजनीति का साम दाम दंड भेद सब देख लिया। सत्ता हासिल करने की ललक में किस प्रकार की घटिया से घटिया चीज़ों का सहारा लेना पड़ता है यह भी इस चुनाव से पता चल गया। एक बात तो साफ हो गयी कि देश में मूल्यों पर आधारित साफ-सुथरी राजनीति विलुप्त होने के कगार पर है। यदि कोई राजनीति में उतरना चाहता है तो उसे अपने उसुल, आदर्श किनारे रखने पड़ेंगे।

हालांकि राजनीति को गुजरात चुनाव के परिदृश्य में देखा जाए तो विपक्ष नेता के रुप में उभर रहे राहुल गांधी ने कुछ हद तक मुद्दों पर आधारित राजनीति करने की कोशिश की जो भाजपा के लिए गले की फांस साबित हुई। उन्होंने विकास से लेकर बेरोज़गारी, कपास, किसान, आदिवासी इत्यादि ज्वंलत मुद्दों पर भी सवाल किए लेकिन वह सांप्रदायिकता और मोदी फैक्टर की लहर के आगे इन मुद्दों को लंबे समय तक टिका नहीं पाए।

सवाल यह उठता है कि क्या यही राजनीति है? दुनिया के सबसे मज़बूत लोकतंत्र मे शुमार होने वाले लोकतंत्र के लिए इस प्रकार की राजनीति शोभा देती है? क्या यह हमारे लोकतंत्र के लिए एक बहुत ही बड़ा खतरा नहीं है?


Tuesday, 21 November 2017

क्या ऐसे बनेंगी महिलाएं सश्क्त?

नगर निकाय चुनाव का बिगुल बजते ही हर गली, चौराहों पर रौनक आ गयी, हर कोई अपने अपने हिसाब से अपने प्रत्याशियों की जीत, वोट इत्यादि का अनुमान लगा रहा है। हर बार की तरह इस बार भी कुछ वार्ड की सीटें महिला आरक्षित हो गयी हैं। जिसे महिला भागीदारी का प्रतीक माना जाता है, इस उम्मीद के साथ कि भविष्य में महिला नेत़ृत्व मज़बूत होगा। देश में महिलाओं की स्थिति सुधरेगी इत्यादि।

लेकिन जब तस्वीर का दूसरा रुख देखो तो वास्तविकता इतनी भयानक रुप में सामने आती हे कि महिला सश्क्तीकरण की सारी उम्मीदें चकनाचूर होकर बिखर जाती हैं। कानपुर का बेहद घनी आबादी वाला मुस्लिम बहुल क्षेत्र कर्नलगंज के वार्ड 110 भी इस बार महिला आरक्षित हो गया। किंतु आप क्षेत्र में जाकर देखें तो आपको एक भी महिला की तस्वीर का पोस्टर, बैनर कहीं नहीं नज़र आएगा। ऐसा नहीं है कि कोई महिला चुनाव लड़ने को तैयार नहीं है या नहीं लड़ रही है। हर दूसरे घर से आपको एक महिला उम्मीदवार मिल जाएगी लेकिन पोस्टर, बैनर पर इनके पति, भाई, बेटे ही आपको नज़र आएंगे।

इतना ही हर रोज़, हर घण्टे आपको ढोल ताशे बजाकर जनसंपर्क करने वालों का झुण्ड भी नज़र आएगा लेकिन उसमें आपको कोई महिला नहीं दिखाई देगी। अब सवाल यह उठता है कि क्या यह महिलाएं नेतृत्व करने योग्य नहीं हैं? करोड़ो का राजस्व देने वाले इस क्षेत्र के हर घर में कोई न कोई कारोबार होता है और इनमें 90 प्रतिशत महिलाएं ही होती हैं। वे घरों में सिलाई से लेकर हर प्रकार के कार्य करती मिल जाएंगी। इतना ही नहीं घर के हर छोटे मोटे काम इन ही महिलाओं के ज़िम्मे होते हैं चाहे सुबह सुबह बच्चों को स्कूल पहुंचाना हो या धनिया मिर्चा, अदरक खरीद कर लानी हो, या फिर शादी ब्याह के अहम फैसले लेने हो सारा काम स्वंय महिलाएं ही करती हैं।


जब ज़िंदगी के हर छोटे बड़े फैसले यह महिलाएं ले सकती हैं तो फिर क्यों क्षेत्र का प्रतिनिधत्व नहीं कर सकतीं?  घर के पुरूषों से पूछने पर बहुत ही हादयस्पद जवाब मिलता है, उनका कहना है कि वह अपनी महिलाओं को इस सब चुनावी झंझट में नहीं डालना चाहते, वे केवल उन्हें चुनावी मैदान में इसलिए उतारते हैं क्योंकि कहीं सत्ता उनके हाथ से छीन न जाए।  अभी हाल ही में आई इकोनॉमी टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार भारत लैगिंग समानता के मामले में विश्व में 108 वें नबंर पर है। क्या इस प्रकार से हम देश में महिला सशक्तीकरण कर पाएंगे? या केवल महिलासशक्तीकरण का नारा देकर हमने समझ लिया कि हो गया सश्कत्तीकरण।

Monday, 14 August 2017

न्याय फांसी पर चढ़ चुका है


मैं हुं न्याय, दुनिया में कोई ऐसे व्यक्ति नहीं जो सुबह से लेकर शाम तक में मुझे याद न करे। सब लोग मुझसे इतना प्यार करते हैं कि दिन में एक बार तो ज़रूर मेरा नाम लेते हैं। हर देश, हर समाज, हर समूह, हर व्यक्ति हर नेता यही कहता है कि वह मेरे साथ है, मुझे पसंद करता है, मुझसे प्यार करता है, मेरे साथ खड़ा रहना चाहता है। हर देश ने मेरे लिए अपने अपने तौर पर व्यवस्था कर रखी है ताकि मैं हर किसी को मिल सकूं, इंसानों के चेहरों पर मैं मुस्कान ला सकूं।

यदि मैं आपको ज़्यादा घुमाऊं न और सीधे तौर पर अपने बारे में बताऊं तो मैं वह व्यवस्था हूं जो व्यक्तियों को अन्य व्यक्तियों के साथ, समुहों को अन्य समूहों के साथ, गुणवता को अन्य गुणवता के साथ बांधे रखती है ताकि एक व्यवस्था, एक प्रणाली, एक प्रक्रिया का निर्माण हो सके। दुनिया के दार्शनिकों ने मुझे अलग अलग रूप में परिभाषित किया है। प्लेटो ने मुझे आत्मा का गुण बताया है तो सिसरो ने आंतरिक अच्छाई। अरस्तू ने समानता का स्तर बताया तो रूसो ने मुझे स्वतंत्रता, समानता और कानून का मिश्रण बताया।

जब भारत का नाम मैं सुनता हुं तो सबसे पहले मेरे सामने विश्व के महान व्यक्तियों में से एक बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का चेहरा आता है जिन्होंने अपने देश में मुझे जगह देने के लिए लोगों को प्रेरित किया। ऐसे लोगों तक मुझे पहुंचाने की कोशिश की जिन्हें बरसों से अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी से वंचित रखा गया था, जिन्हें समाज में हीनता की भावना से देखा जाता था जिन्हें समानता का अधिकार नहीं था। उन सभी लोगों का ख्याल कर के उन्होंने एक ऐसा संविघान निर्मित करवाया जहां सब अनेकता में एकता के साथ रह सकें। और उसके बाद मैं भारत और भारतवासियों के बीच घुलमिल कर रहने लगा। इस देश को अपना घर समझने लगा यहां के लोगों को अपना परिवार।

लेकिन फिर धीरे धीरे कर के मैं लोगों के दिलों से फिर दिमाग से और अब याद्दाश्त से पूरी तरह गुम हो गया। लोगों को पुकारता हुं कि आओ मेरा साथ दो, मुझे अकेला न छोड़ो लेकिन कोई मेरी आवाज़ नहीं सुनता, कोई मेरे पास नहीं आता, मै बिल्कुल तन्हा हो गया जैसे सहरा में कोई गुमनाम प्राणी, वह चीखता है लेकिन कोई सुनने वाला नहीं होता, वह तड़पता है लेकिन कोई महसूस करने वाला नहीं होता।

नेता, मंत्री सब मेरे नाम पर वोट मांगते हैं मेरे साथ चलने का लोगों से वादा करते हैं लेकिन कुछ समय बाद भूल जाते हैं। बहुत छटपटाता हुं यह देखकर कि जिस भारत की आज़ादी के समय कल्पना की गयी थी, जिस भारत को लेकर महापुरूषों ने सपने देखें थे 70 साल बाद वह भारत कहीं नहीं दिखता। बल्कि एक ऐसा भारत बन गया जो सांप्रदायिकता को बढ़ावा देता है, जो इंसानियत का गला घोंटता है, जो लोगों को विभाजित करने का प्रयास करता है, जो नफरत को बढ़ावा देता है। फिर भी मैं उम्मीद करता हूं एक नई सुबह अवश्य रौशन होगी उस भारत की जिसके लिए संविधान निर्माताओं ने सपने देखे थें। वह दिन ज़रूर आएगा जब लोग मेरा नाम लेने के साथ ही मेरा साथ देने की भी कोशिश करेंगे, मेरे लिए आवाज़ उठाएगें, मेरे खिलाफ जाने वालों के लिए लड़ पड़ेंगे। वह सुबह ज़रुर आएगी।


Saturday, 8 July 2017

सोशल मीडिया देश की अखंडता को तोड़ने का साधन बन गया है

गत वर्षों में हमने देश में उग्र भीड़ द्वारा कानून हाथ में लिये जाने की कई घटनाओं को देखा है। इनमें अकसर घटनाएं सोशल मीडिया पर फैली अफवाह के कारण घटित हुई हैं। चाहे झारखंड के उत्तम कुमार के तीन भाइयों की पीट पीटकर हत्या का मामला हो या फिर राजस्थान के पहलू खान की हत्या। इन घटनाओं के बाद भड़की हिंसा को कंट्रोल करने के लिए पुलिस को इण्टरनेट सेवाएं बंद करनी पड़ी थीं।

इसी प्रकार कश्मीर में भड़की हिंसा को कंट्रोल करने के लिए भी प्रशासन को इण्टरनेट सेवाओं को बंद करना पड़ता है। प्रशासन और पुलिस अधिकारियों का कहना है कि कानून व्यवस्था बनाए रखने में सोशल मीडिया एक चुनौती साबित हो रही है क्योंकि पिछले कई महीनों के दौरान जितनी भी हिंसक घटनाएं हुई हैं उनमें सोशल मीडिया के ज़रिए ही नफरत फैलाने की कोशिश की गई।
चाहे वह फोटोशॉप के ज़रिए तैयार की गई भड़काऊ तस्वीर हो या फिर लोगों के बीच नफरत पैदा करने वाली पोस्ट हो। सोशल मीडिया ने माहौल खराब करने का काम किया है और हैरानी की बात तो यह है कि सोशल मीडिया के ज़रिए फैलायी जाने वाली अफवाह के शिकार सबसे अधिक पढ़े लिखे लोग हो रहे हैं।

साइबर क्राइम एक्सपर्ट का मानना है कि अभी तक ऐसे कानून नहीं बन पाए हैं जिनके ज़रिए सोशल मीडिया पर अफवाह फैलाने वालों से सख्ती से निपटा जाए। केवल इंफार्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट के ज़रिए सोशल मीडिया पर ज़हर फैलाने वालों पर नकेल नहीं कसी जा सकती है। इसके लिए और भी उपाय किए जाने चाहिए और इसमें पुलिस के साथ-साथ दूसरे संगठनों को भी शामिल किया जाना चाहिए

Tuesday, 4 July 2017

आधुनिक युवा और महिला सश्कतीकरण


वर्ष 2016 में सेंटर फॉर द स्टडी आॅफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) ने कोनराड एडेन्यूर स्टीफटुंग (केएएस) के साथ मिल कर ‘भारत में युवाओं की अभिवृत्ति’ विषय पर एक अध्ययन किया। इस सर्वे में पंद्रह से चौंतीस वर्ष के भारतीय युवाओं (देश में युवा आबादी करीब पैंसठ फीसद है) से अनेक सवाल पूछे गए। आंकड़ों के अनुसार अस्सी फीसद युवा ज्यादा चिंतित या असुरक्षित महसूस करते हैं। उनमें चिंता के मुख्य कारण माता-पिता की सेहत, पारिवारिक समस्या, नौकरी और परिवार की संस्कृति को बनाए रखने जैसे मुद््दे हैं। इकतालीस फीसद युवाओं ने माना कि शादीशुदा महिलाओं को काम नहीं करना चाहिए, इक्यावन फीसद मानते हैं कि पत्नियों को हमेशा अपने पतियों की बात सुननी चाहिए। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय युवा सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से विरोधाभासी चरित्र के हैं, निजी स्पेस में तो रूढ़िवादी रुझान रखते हैं और सार्वजनिक स्पेस में आधुनिक होने का दावा करते हैं। आंकड़े बताते हैं कि 61 फीसद युवा स्टाइलिश कपड़े पहनने के शौकीन हैं, 59 फीसद को सबसे आधुनिक फोन रखना पसंद है, 41 फीसद डियो, 39 फीसद फेयरनेस क्रीम के दीवाने हैं। यह एक तथ्य है कि उपभोक्तावाद और नवउदारवाद ने युवाओं में ‘दिखावे की संस्कृति’ को तीव्र किया है। हर्बट मारक्यूजे कहते हैं कि पूंजीवादी समाजों में ‘मिथ्या आवश्यकताओं’ को उत्पन्न किया जाता है और उसका परिणाम गरीबी व दुख के रूप में सामने आता है। आज के समाज में युवा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य इकाइयों का दोहन तो करते हैं, पर अन्य इकाइयों की आवश्यकताओं की पूर्ति में स्वयं को सम्मिलित न करने की प्रवृत्ति भी रखते हैं। इसके कारण सभी प्रकार के संबंध पूरी तरह से औपचारिक व अवैयक्तिक बन जाते हैं जहां संबंधों में प्रतिबद्धता का अभाव होता है।
सर्वे के अनुसार युवाओं के लिए विवाह अब ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं रहा। विवाह को लेकर पूछे गए सवाल पर महज आधी युवा आबादी ने इसे जरूरी बताया, जबकि 2007 में यह आंकड़ा अस्सी फीसद था। वर्तमान में पचास प्रतिशत ने अंतर्जातीय विवाह को स्वीकारा, जबकि 2007 में यह आंकड़ा तीस फीसद के आसपास था। संभवत: युवा पीढ़ी अब किसी प्रकार के बंधन में बंधना नहीं चाहती या कहें कि पारिवारिक जिम्मेदारी का निर्वाह करने से बचने लगी है। परिवार की उपेक्षा, माता-पिता व वृद्ध सदस्यों की उपेक्षा और केवल अपनी ख्वाहिशों को पूरा करने की चाहत ने इस पीढ़ी को अत्यधिक व्यक्तिवादी बना दिया है। यह भी एक तथ्य है कि जीवन साथी के चुनाव में अब युवा धर्म और जाति से परे भी सोचने लगे हैं।सर्वे के अनुसार प्रत्येक तीसरा युवा या तो ज्यादा धार्मिक या बहुत ज्यादा धार्मिक था। यह एक यथार्थ है कि धर्म के पीछे ‘भय का मनोविज्ञान’ काम करता है और युवाओं का अधिक या बहुत अधिक धार्मिक होते जाना इस बात का प्रमाण है कि अनिश्चितता और असुरक्षा के इस दौर में हर कोई डर के मारे धर्म की शरण में जाने को तैयार है। सर्वे में बेरोजगारी और नौकरी को लेकर सवाल किया गया तो 65 फीसद युवाओं की पहली पसंद सरकारी नौकरी ही रही। 19 फीसद युवाओं ने स्वरोजगार की बात कही, केवल 7 फीसद युवाओं ने प्राइवेट सेक्टर में काम करने को प्राथमिकता दी। युवाओं ने बेरोजगारी को देश की सबसे बड़ी समस्या बताया, उसके बाद गरीबी और भ्रष्टाचार को। एक अच्छा सैलरी पैकेज, अच्छी सुविधाएं और उच्च पद देख युवा लोग प्राइवेट नौकरी के प्रति अधिक आकर्षित होते थे, भले ही वहां काम करने के घंटे अधिक होते थे, पर इन आंकड़ों से जाहिर है कि प्राइवेट नौकरी में बढ़ती अनिश्चितता और असुरक्षा के कारण अब सरकारी नौकरी उनकी पहली पसंद हो गई है।
वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने एक तरफ समाजविज्ञानों को हाशिये पर ला दिया और दूसरी तरफ बच्चों/युवाओं में आक्रामकता, भय, असुरक्षा, अलगाव व अविश्वास उत्पन्न किया। क्या इन दोनों परिघटनाओं को कारण-परिणाम के रूप में देखा जा सकता है? वर्तमान दौर में समाज में होने वाली अनेक घटनाओं को इसी संदर्भ में समझने की जरूरत है। यह ‘क्रोध का युग’ है जो नव्य-उदारवादी संस्कृति की देन है और जिसने आक्रामकता, भय, असुरक्षा, अलगाव व अविश्वास को उत्पन्न किया है। इस संस्कृति का सबसे भयानक परिणाम बच्चों तथा युवाओं पर हुआ है क्योंकि इनके पास अनुभवों का अभाव है, इन्होंने समाज का उतार-चढ़ाव या संघर्ष नहीं देखे हैं। शायद इसलिए ये समायोजन नहीं कर पाते और निराशा के शिकार हो जाते हैं। फिर भी कोई गलत राह पकड़ लेते हैं, यहां तक कि आत्महत्या करने से भी नहीं चूकते। शिक्षाशास्त्र का क्षय, कक्षाओं में विद्यार्थियों की अनुपस्थिति, बच्चों व अभिभावकों के बीच और शिक्षकों व विद्यार्थियों के बीच संवाद का कम होना ऐसे पक्ष हैं जिनके परिणामस्वरूप इनका जीवन के यथार्थ को समझना भी मुश्किल हो गया है। बिना समझे विषय को रटना, कक्षा में बिना किसी विमर्श के विषयवस्तु को कट-कॉपी-पेस्ट करना, पास होने या सफलता पाने के लिए शार्टकट अपनाना आदि ऐसे पक्ष हैं जिनके कारण वे पलायनवादी बनते जा रहे हैं। संघर्ष करना तो दूर की बात, वे समायोजन के लिए भी तैयार नहीं हैं। संभवत: इस स्थिति के लिए समाज विज्ञानों की उपेक्षा करने को जिम्मेदार माना जा सकता है। क्योंकि सामाजिक विज्ञान का ज्यादा महत्त्वपूर्ण योगदान नीति-निर्धारण के लिए प्रशिक्षित करने में नहीं बल्कि शिक्षित व समझदार नागरिक तैयार करने में है। अच्छे लोकतंत्र के लिए शिक्षित नागरिक वर्ग का होना अपरिहार्य है। कोई व्यक्तिअच्छा नागरिक होने के गुण अनायास हवा में से नहीं पकड़ता, उन्हें हासिल करने और बढ़ावा देने के लिए एक खास प्रकार की शिक्षा की जरूरत होती है। मेडिकल, इंजीनियरिंग, तकनीकी ज्ञान नौकरी पाने के लिए पर्याप्त हो सकता है, पर अच्छे नागरिक को उस सामाजिक संसार के बारे में भी समझ होना जरूरी है जिसका वह हिस्सा है।
यह भी एक तथ्य है कि बाजारवादी/ पूंजीवादी ताकतें ‘विचारधारा का अंत’, ‘इतिहास का अंत’ की तरह ही ‘समाजविज्ञानों का सीमांतीकरण’ जैसे मिथक जान-बूझ कर प्रसारित कर रही हैं ताकि उन्हें चुनौती न दी जा सके और हम इस मिथक को स्वीकार करके उनके हितों की पूर्ति में सहायक बन सकें। इसलिए बीसवीं सदी में जो सिद्धांत या पद्धतिशास्त्र समाजविज्ञानों में उभरे उनकी अंतर्वस्तु को पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया जा रहा ताकि बाजारवाद को चुनौती न मिले। एडवर्ड सईद भी मानते हैं कि ‘देशज संस्कृति’ को मजबूत करके औपनिवेशिक सत्ता को चुनौती दी जा सकती है, क्योंकि उन्होंने सबसे पहले इसे ही हाशिये पर किया था, क्योंकि केवल यही लोगों को लोगों से जोड़ती है।
युवा पीढ़ी मशीनों अथवा प्रौद्योगिकी का अत्यधिक प्रयोग करने के कारण ‘वर्चुअल विश्व’ के संपर्क में अधिक रहती है जिसके कारण इनका यथार्थ के जीवन से कोई संबंध नहीं रहता। मशीनीकरण ने अलगाव को प्रत्येक व्यक्तित्व का न केवल हिस्सा बनाया बल्कि उसे ‘पिंजरे में बंद व्यक्तित्व’ में बदल दिया जो स्वाभाविकता से जुड़ी क्रियाओं, भावनाओं, कौशल को प्रयुक्तकरना भूल गया। कितना विरोधाभास है कि एक तरफ नई प्रौद्योगिकी युवाओं को समग्र विश्व से जोड़ रही है और दूसरी तरफ उन्हें अपने ही परिवार/समाज से दूर कर रही है, जिसके कारण व्यक्तिवादिता, अलगाव, असुरक्षा, निराशा, भय, अनिश्चितता, अविश्वास की संस्कृति उत्पन्न हुई। फलस्वरूप क्रोध, हिंसा, आक्रामकता को तीव्र कर ‘जोखिम समाज’ को उत्पन्न किया है। पहले समाज को प्रतिमान और मूल्य आकर देते थे और अब प्रौद्योगिकी निर्देशित ताकतें व अति-यथार्थ (हाइपर रियलिटी) आकर देते हैं। इसलिए समाज की परिभाषा व विवेचना के लिए इन सब संदर्भों को देखना होगा।
ज्योति सिडाना
जनसत्ता से साभार 

Thursday, 15 June 2017

violence spreading through social media

सोशल मीडिया देश की अखंडता को तोड़ने का साधन बन गया है


गत वर्षों में हमने देश में उग्र भीड़ द्वारा कानून हाथ में लिये जाने की कई घटनाओं को देखा है। इनमें अकसर घटनाएं सोशल मीडिया पर फैली अफवाह के कारण घटित हुई हैं। चाहे झारखंड के उत्तम कुमार के तीन भाइयों की पीट पीटकर हत्या का मामला हो या फिर राजस्थान के पहलू खान की हत्या। इन घटनाओं के बाद भड़की हिंसा को कंट्रोल करने के लिए पुलिस को इण्टरनेट सेवाएं बंद करनी पड़ी थीं।

इसी प्रकार कश्मीर में भड़की हिंसा को कंट्रोल करने के लिए भी प्रशासन को इण्टरनेट सेवाओं को बंद करना पड़ता है। प्रशासन और पुलिस अधिकारियों का कहना है कि कानून व्यवस्था बनाए रखने में सोशल मीडिया एक चुनौती साबित हो रही है क्योंकि पिछले कई महीनों के दौरान जितनी भी हिंसक घटनाएं हुई हैं उनमें सोशल मीडिया के ज़रिए ही नफरत फैलाने की कोशिश की गई।

चाहे वह फोटोशॉप के ज़रिए तैयार की गई भड़काऊ तस्वीर हो या फिर लोगों के बीच नफरत पैदा करने वाली पोस्ट हो। सोशल मीडिया ने माहौल खराब करने का काम किया है और हैरानी की बात तो यह है कि सोशल मीडिया के ज़रिए फैलायी जाने वाली अफवाह के शिकार सबसे अधिक पढ़े लिखे लोग हो रहे हैं।

साइबर क्राइम एक्सपर्ट का मानना है कि अभी तक ऐसे कानून नहीं बन पाए हैं जिनके ज़रिए सोशल मीडिया पर अफवाह फैलाने वालों से सख्ती से निपटा जाए। केवल इंफार्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट के ज़रिए सोशल मीडिया पर ज़हर फैलाने वालों पर नकेल नहीं कसी जा सकती है। इसके लिए और भी उपाय किए जाने चाहिए और इसमें पुलिस के साथ-साथ दूसरे संगठनों को भी शामिल किया जाना चाहिए।


लेकिन सवाल यह है कि उस देशवासियों को एकता पाठ पढ़ाने के लिए सख्त कानून की ज़रूरत पड़ रही है जिस देश की रग-रग में एकता अखंडता बसी थी। जिस देश की संस्कृति ने प्रेम और सौहार्द की ऐसी मिसाल कायम की थी कि दुनिया रश्क करती थी। सोशल मीडिया पर हम देशवासी ही तो सक्रिय रहते हैं तो क्या हमारा यह कर्तव्य नहीं बनता कि हम इन नफरत के पुजारियों से बच कर रहें उनके बहकावे में न आयें बिना तहकीकात किये किसी भी पोस्ट पर भरोसा न करें आखिर यह देश हमारा है तो अमन और शांति कायम रखने में हमारा भी सहयोग होना चाहिए।

Tuesday, 6 June 2017

stand with ndtv

हेलो। मेरा नाम लोकतंत्र है।



मैं अवाम की आवाज़ हूँ , घोर अँधेरे में उम्मीद का एक चिराग़ हूँ। 
मेरे जन्म लेते ही दुनिया में हक़ की, इंसाफ की आवाज़ बुलंद होने लगी। मज़लूमों का, बेसहारों का, समाज के द्वारा शोषित तबके का मैं सहारा बन गया। दुनिया के कोने कोने में मेरा स्वागत किया गया। मुझे अपनाने के लिए लोग बेचैन हो गए।

उसी समय हिंदुस्तान भी अंग्रेज़ों की गुलामी से कराह रहा था। जनता ज़ुल्म सह सहकर बेहाल हो चुकी थी। हर तरफ से अंग्रेज़ों को देश से भगाने की सदाएं बुलंद हो रही थीं। आख़िरकार हिंदुस्तान अंग्रेज़ों की गुलामी से मुक्त हो गया तब भीमराव अंबेडकर मुझे सजा संवारकर इस देश में ले आये। देशवासियों ने भी मुझे ख़ुशी ख़ुशी गले लगाया। हर भारतीय को मुझसे प्रेम और मुझ पर विश्वास हो गया। देश मेरे कंधों पर चढ़ कर विकास की नई डगर पर चलने लगा। मेरे कारण भारत का नाम दुनिया के कोने कोने में छा गया। मैं भी अपनी और इस देश की तरक़्क़ी होते देख ख़ुशी से फूला नहीं  समाता था। 
लेकिन फिर ना जाने किसकी नज़र लग गई। जिस देश ने मुझे इतना मान सम्मान दिया था आज वो मेरा गला घोंट रहा है। मुझे मारने का प्रयास कर रहा है जो लोग मुझे बचाने की जद्दोजहद कर रहे हैं उन्हें भी नहीं बख़्शा जा रहा है।

मुझे अपने मरने का अफ़सोस नहीं अफ़सोस इस बात का है कि सत्ता का सुख ले रहे लोग उन लोगों के प्रयास भूल गए जिन्होंने इस देश में मुझे लाने के लिए क्या क्या जतन नहीं किये। मेरे मरने के बाद ये देश फिर वहीं पहुंच जाएगा जहाँ से आगे बढ़ा था। मेरी बरसों की तपस्या बेकार चली जाएगी।।
(लोकतंत्र की घुटी हुई आवाज़)

Monday, 29 May 2017

heaven of earth

कश्मीर : धरती का स्वर्ग 


कश्मीर की खूबसूरती से प्रसन्न होकर प्रसिद्ध शायर अमीर ख़ुसरो ने कहा था 
'गर फिरदौस बर रूए ज़मीं अस्त, 
हमी अस्तो, हमी अस्तो, हमी अस्तो '
अथार्थ धरती पर कहीं स्वर्ग है तो वह यहीं है, यही हैं यहीं है। 
       हम सब के सामने कश्मीर का नाम आते ही ज़ेहन में एक हसीन मंज़र दौड़ जाता है। जहाँ हसीन हसीन वादियां, सेबों के बाग़ और बहुत ही खूबसूरत खूबसूरत तसव्वुर दिलों दिमाग़ में छा जाता है और मन कश्मीर की सैर करने को मचल उठता है। लेकिन वहाँ के लोगों के लिए अब ये जन्नत नहीं जहन्नम बन गया है। और इसका असर सबसे ज़्यादा मासूम बच्चों पर पड़ रहा है। आज बीबीसी हिंदी ने वहां के बच्चों द्वारा बनाई गई पेंटिंग्स प्रकाशित की हैं जिन्हे देख के आंखे दंग रह गईं। जिस बचपन में ख्वाब होते हैं, खिलखिलाहट होती है, मुस्कान होती है, परियों की दुनिया की कल्पना और कार्टून्स होते हैं, जिन मन के कैनवास में रंग बिरंगे खूबसूरत रंग होते हैं वहां केवल लाल रंग मौजूद है। आँखों में हुड़दंग की जगह ख़ौफ़ मौजूद है। दिल में हसीं ख्वाब की जगह आग में जलते हुए मंज़र मौजूद हैं। क्या होगा ऐसे मासूमों का भविष्य जो अभी से ऐसे माहौल में पल रहे हैं और दिल को छू देने वाले मंज़र अपने हाथो से कागज़ पर उकेर रहे हैं। सैनिकों द्वारा चलाई जा रही पैलेट गन से वहां के लोगों की आँखों की रौशनी जा रही है। इसका दर्द भी बच्चों में मौजूद है। 
         मासूमों के हाथ की किलकारी से कश्मीर का दर्द छलक कर इन तस्वीरों में फैला सा दिखता है। क्या ये इन हालत में उज्वल भविष्य के सपने संजो पाएंगे ? क्या कभी कश्मीर मसले का हल निकल पाएगा? क्या हम इस दोज़ख बनती जन्नत के फूलों को बेहतर                                           ज़िन्दगी दे सकते हैं?




Wednesday, 10 May 2017

इस गाँव में रहने जाएंगे तो सरकार देगी डेढ़ लाख रूपए 


भारत में भले ही जनसंख्या को लेकर सरकार परेशान हो। लेकिन, पूरी दुनिया में कई ऐसे देश हैं जहां जनसंख्या की कमी सरकारों के लिए चिंता विषय बनी हुई हैं। इन देशों की सरकारें लगातार जनसंख्या बढ़ाने के लिए नागरिकों को तरह-तरह के प्रलोभन दिया करती है। कुछ देशों की सरकारें लोगों से ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील करती हैं। यही नहीं ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए तरह-तरह की सुविधाएं भी मुहैया कराती हैं। इटली का एक गांव भी जनसंख्या की कमी की समस्या से जूझ रहा है। इसे लेकर गांव के मेयर ने प्रस्ताव रखा है। प्रस्ताव के तहत गांव में आकर रहने वाले शख्स को 1,700 पाउंड (करीब 1 लाख 43 रुपए) दिया जाएगा और यहां का किराया सिर्फ 40 पाउंड (करीब 3400 रुपए) प्रति महीने होगा।
इटली के पहाड़ी इलाके में बसे इस गांव के मेयर ने लोगों को आकर्षित करने के लिए प्रस्ताव रखा है ताकि गांव में नया खून (नए लोग) आएं। मेयर को चिंता है कि गांव ‘भूतहा’ ना बन जाए। दरअसल पहाड़ी पर बसा गांव बोरमिडा वास्तव में कोई पर्यटन स्थल नहीं है। यह गांव पर्वतीय लिगुरिया क्षेत्र में है। गांव में सिर्फ 394 लोग निवास करते हैं। मेयर डेनियल गैल्लियानो का कहना है कि वर्तमान में यह विचार सिर्फ एक प्रस्ताव है। इस प्लान को म्यूनिसिपल काउंसिल द्वारा पास किया जाएगा। अपने इस प्लान के बारे में उन्होंने फेसबुक पर पोस्ट किया है। इस पर यूजर्स की ओर से प्रतिक्रिया भी दी गई। एक शख्स ने लिखा कि अगर वहां बेहतर वाई-फाई है तो वह आने के लिए तैयार है। वहीं, दूसरे का कहना है कि कब आना है बताओ, मैं वहां आ जाउंगा। बता दें कि इटली का यह गांव अकेला नहीं है, जहां जनसंख्या को लेकर इस तरह की समस्या हो बल्कि अमेरिका, न्यूजीलैंड, इंडोनेशिया, कनाडा समेत कई देश हैं, जहां इस तरह की दिक्कते हैं।

Tuesday, 9 May 2017

U.P. GOVERMENT

सुशासन के नाम पर कुशासन



गुंडाराज पर सपा सरकार को घेरने वाली बीजेपी उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने के बाद खुद गुंडागर्दी ख़त्म करने में नाकाम साबित हो रही है। सरकार बने अभी जुम्मा जुम्मा चार दिन ही हुए हैं कि सत्ता पक्ष और खाकी में संघर्ष शुरू हो गया है। 
     कुछ समय पहले सहारनपुर के एसएसपी लव कुमार ने आरोप लगाया था कि सांसद राघव लखनपाल समेत सैकड़ों लोगों ने उनके घर पर पत्थरबाज़ी की थी। हालाँकि सांसद महोदय ने आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि लव कुमार पिछली सरकार के इशारे पर काम कर रहे हैं। इसका नतीजा ये हुआ कि एसएसपी सहारनपुर के पद से उन्हें हटा दिया गया। 
    मेरठ में बीजेपी नेता संजय त्यागी पुलिस से भिड़ गए जब उनके बेटे की गाड़ी से हूटर हटवाया जाने लगा। उसके बाद तो हद ही हो गई उन्होंने बेटे को थाने से छुड़ाने के ;लिए जमकर हंगामा किया। नतीजा ये हुआ की बेटे को छोड़ दिया गया और पुलिस अधिकारी को हटा दिया गया। 
    योगी आदित्यनाथ के सीएम बनने के बाद ऐसी तमाम घटनाएं लगातार देखने सुनने को मिल रहीं हैं। हाल ही की प्रचलित घटना गोरखपुर की है जहाँ बीजेपी के कद्दावर नेता और स्थानीय विधायक राधा मोहन अग्रवाल ने आईपीएस अधिकारी और गोरखनाथ क्षेत्र की क्षेत्राधिकारी चारु निगम के साथ ऐसी बदसलूकी की कि उनके आंख से आंसू आ गए। 
     इस प्रकार की घटनाएं कोई नई नहीं है पहले भी सत्ता पक्ष की गुंडागर्दी हम देखते सुनते रहे हैं बस फ़र्क़ इतना है कि चेहरे बदल गए हैं। जिन लोगों ने कुशासन गिना कर सुशासन के नाम पर वोट माँगा था सत्ता में आते ही वो भी पुराने ढर्रे पर चलने लगें। करे भी तो क्या ये सत्ता का लोभ है ही ऐसी चीज़ हालांकि मुख्यमंत्री की अपने विधायकों और समर्थकों से बार बार यही अपील रही है कि 'जोश में होश न खोयें' फिर भी कार्यकर्त्ता उनकी बातों को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। अब सवाल यह खड़ा होता है कि जो व्यक्ति अपने समर्थकों को नहीं संभाल पा रहा है वो प्रदेश के लिए चुनौती बने क़ानून वयवस्था को कैसे ठीक करेगा?? हालाँकि उनके सख्त तेवर हमेशा यही दर्शाते रहे हैं कि वो प्रदेश में सुशासन ही लाना चाहते हैं लेकिन उनके तेवर और पार्टी कार्यकर्ताओं की सोच में तालमेल बिलकुल नहीं दिखाई देता। समय रहते मुख्यमंत्री को इसे सही करना होगा वरना पिछली सरकारों का उन्होंने हश्र देखा ही है।   

Saturday, 6 May 2017

Recep Tayyip Erdogan

इंसाफ पसंद लोगों की पहली पसंद : रजब तईब इरदुगान


तुर्की के ऐतिहासिक शहर इस्तांबुल  में जन्मे रजब तईब इरदुगान की प्रारंभिक शिक्षा की शुरुआत मदरसे से हुई।  उनके पिता फल विक्रेता थे और उनकी स्तिथि इतनी अच्छी नहीं थी कि वह अपने लड़के को किसी अच्छे स्कूल में पढ़ाते। कभी कभी तो घर के हालात ऐसे हो जाते कि खाने के नाम पर खरबूजे के साथ रोटी खानी पड़ती। धीरे धीरे समय बीतता गया और तईब इरदुगान ने 1937 में उसी मदरसे से अपनी पढ़ाई पूरी की और तुर्की के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र एवं प्रशासनिक विज्ञान में मास्टर किया।

      मुस्तफा कमाल पाशा ने तुर्की में सेकुलरिज्म के नाम पर जो क़ानून बनाया वह बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के सेकुलरिज्म से बिलकुल भिन्न था। हमारे देश में सेकुलरिज्म के नाम पर हर तरह की आज़ादी है धार्मिक स्वतंत्रता है लेकिन तुर्की में स्वतंत्रता के नाम पर इस्लामिक कल्चर पर पूरी तरह से पाबन्दी लगा दी गई हिजाब नक़ाब पर पूरी तरह बैन लगा दिया गया। अरबी पढ़ने पर पाबंदी लगा दी गई। इसी माहौल में रजब तईब इरदुगान पहली बार 1994 में वेलफेयर पार्टी में रहकर इस्तांबुल के मेयर बनते हैं और 1998 तक मेयर के पद पर रहते हैं। मेयर के तौर पर अपनी ईमानदारी, विकास के कामो की बदौलत तरक़्क़ी हासिल करते हुए 2003 में तुर्की के प्रधानमंत्री बनते हैं। 2014 में 51.79 %  वोटों के साथ तुर्की की जनता उन्हें राष्ट्रपति की कुर्सी पर बिठा देती है। अप्रैल में रजब तईब इरदुगान ने देश की संसदीय कार्य प्रणाली को कार्यकारी अध्यक्ष पद से बदलने के लिए जनमत संग्रह करवाया जिसमे उन्हें अपार सफलता  हुई। इसके तहत तुर्की का राष्ट्रपति राज्य प्रमुख के साथ साथ सरकार प्रमुख भी हो जाएगा। सरकार प्रमुख के रूप मे प्रधानमंत्री का पद समाप्त कर दिया जाएगा। इससे राष्ट्रपति की शक्ति और बढ़ जाएगी। राष्ट्रपति और संसद का चुनाव एक ही दिन पांच साल की अवधि के लिए होगा।
        इरदुगान 30 अप्रैल को भारत दौरे पर  आये थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  द्विपक्षीय वार्ता में उन्होंने आतंकवाद, व्यापार में सहयोग, एन.एस.जी में सदस्यता, व्यापर में सहयोग इत्यादि गंभीर मुद्दों पर चर्चा की। उन्होंने भारत आने से पहले कश्मीर मुद्दे पर भी बयान दिया। उन्होंने कहा था कि कश्मीर घाटी में हिंसा रुकनी चाहिए।
       अब ये  देखना दिलचस्प होगा कि इरदुगान राष्ट्रपति के रूप में तुर्की को विकास की किस दिशा में ले जाते हैं। एक ऐसे समय में जब तमाम इस्लाम पसंदों की उम्मीद उनसे जुड़ी हुई है। अब तक के  तेवर ने चाहे इस्राइल के खिलाफ हो या अमेरिका के... उन्होंने यही साबित करने की कोशिश की है कि वह इस्लाम के हिमायती हैं।  

Thursday, 4 May 2017

Muslim personal law

     इस्लाम एक पूर्ण जीवन व्यवस्था है जो जीवन के तमाम मसलों पर बहस करता है और उनका सही हल पेश करता है।  क्योंकि उसकी दी हुई शिक्षा किसी इंसान की बनाई हुई नहीं है बल्कि उस ईश्वर की दी हुई है जो पूरी क़ायनात का मालिक है। उसी ने मर्द और औरत को बनाया।  जीवन जीने के तमाम क़ानून आसमानी किताबों के द्वारा हम तक पहुँचाए और रसूलों के द्वारा उन पर अमल करके ये साबित कर दिया के ये क़ानून इंसानी स्वभाव के तक़ाज़ों को पूरा करने, उसे बाकी रखने और उसे पूरा करने के लिए हैं।
      हमारे देश की एक बड़ी आबादी इस्लाम के बारे में ग़लतफ़हमी का शिकार है। उन्हें लगता है कि उन्हें लगता है की इस्लाम की शिक्षा औरत के लिए ज़ालिमाना है।

मुस्लिम पर्सनल लॉ क्या है ?

     इस्लाम जीवन के तमाम पहलुओं में रहनुमाई करता है और मुसलमानो को एक क़ानून देता है। इन क़ानूनों का एक  हिस्सा वह है जिसमे खानदानी निज़ाम के बारे में हिदायतें दी गई हैं।  इन्हें अरबी में 'क़वानीनने-अहवाले-शख्सिया' और हिंदी में 'खानदानी क़ानून' और अंग्रेज़ी में personal law जाता है। भारत में मुस्लिम शासनकाल के दौरान जीवन के अधिकतर विभागों में इस्लामी क़ानून लागू थे लेकिन जब देश की सत्ता अंग्रेज़ों के हाथ में गई तो उन्होंने धीरे धीरे सभी क़ानून ख़त्म करने शुरू कर दिए। पहले फौजदारी क़ानून ख़त्म किया, फिर गवाही का क़ानून और  मुआहिदों के क़ानून ख़त्म किये,फिर खानदानी क़ानूनों को बदलने की तैयारी की जाने लगी। उस समय मुसलमानो के ज़बरदस्त विरोध के कारण वो ऐसा नहीं कर पाए और मुसलमानो की मांग पर 1937 में 'शरीअत एप्लीकेशन एक्ट' पास हुआ जिसके तहत निकाह, तलाक़, खुला, मुबारत, फ़स्ख़े निकाह(निकाह ख़त्म हो जाना ), हिज़ानित(लेपालक), हिबा, वसीयत, आदि से सम्बंधित मामलों में अगर दोनों पक्ष मुसलमान हैं तो उनका फैसला इस्लामी शरीअत के मुताबिक़ होगा, चाहे उनके रस्मो रिवाज कुछ भी हों। इसी को अब 'मुस्लिम पर्सनल लॉ' के नाम से जाना जाता है।
       देश की आज़ादी के बाद  जब संविधान बना तो उसमे 'मूल अधिकार' के तहत सभी नागरिकों के लिए धर्म और अभिवयक्ति की आज़ादी और हर धर्मों के मानने वालों के लिए अपने धर्म पर चलने की आज़ादी की धाराएँ शामिल की गईं। ये धाराएं मुस्लिम पर्सनल लॉ की सुरक्षा की गारंटी देती हैं , लेकिन संविधान के 'मार्गदर्शक सिद्धांत' (Directive Principls) में एक धारा (धारा 44 ) भी रख दी गई। इसके तहत सरकार देश में 'समान नागरिक सहिंता ' बनाने का प्रयास करेगी। यह दोनों बातें आपस में टकराती हैं, इसी लिए संविधान सभा के मुस्लिम सदस्यों ने उस समय इसका विरोध किया था लेकिन फिर भी ये धारा संविधान में शामिल रही। इसी के तहत समय समय पर मुस्लिम पर्सनल लॉ को खत्म करके देश में समान नागरिक सहिंता को लागू करने की कोशिश की जाती है और देश की अदालतें भी ऐसे फैसले सुनाती हैं जो मुस्लिम पर्सनल लॉ से टकराते हैं।
 
     
 आजकल पूरी मीडिया जगत ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी है। जिसके तहत इस्लाम को बदनाम करने के लिए 'तीन तलाक़' का मुद्दा उछाल कर ये साबित करने की कोशिश की जा रही है कि इस्लाम में औरतों पर बहुत ज़ुल्म होता है। और बेचारी मुस्लिम महिलाएं अज्ञानता के  कारण मीडिया के सामने खुद को मज़लूम साबित करने की कोशिश करती हैं। उन्हें खुद ये नहीं पता कि एक बार में तीन तलाक़ देने के ख़िलाफ़ इस्लाम खुद है। दूसरी बात ये कि इस्लाम सिर्फ इकलौता धर्म है जिसमें मेहर का प्रावधान है। बाकी धर्मो में तो लड़की को विदा करते समय दहेज़ के नाम पर लाखों रूपए नक़द एवं सामान दिया जाता है जबकि इस्लाम में शादी के वक़्त लड़के वाले लड़की को मेहर देते हैं और लड़की इस बात के लिए आज़ाद है कि वह जितनी चाहे मेहर मांग सकती है।
 
       मुस्लिम पर्सनल लॉ का विरोध करने वालो को गोवा का वो क़ानून नहीं दिखाई पड़ता जिसके तहत यदि महिला 25 साल की आयु में बच्चा नहीं पैदा कर पाती तो उसके पति को अधिकार है कि वह दूसरी शादी कर सकता है। और अगर औरत 30 साल की आयु तक बेटा नहीं पैदा करती तो उसके पति को अधिकार है कि वह दूसरी शादी कर सकता है।
   
 मुस्लिम महिलाओं के हक़ में लड़ने वालो को ये नहीं दिखाई देता कि हमारे देश में प्रतिदिन 4800 बच्चियाँ कोख़ में मार दी जाती हैं। हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि मैं मुस्लिम बहनों पर ज़ुल्म नहीं होने दूंगा जबकि खुद अपनी बीवी को 35 साल से छोड़ रखा है और तलाक़ भी नहीं दिया। फिर भी मुसलमान तलाक़ देकर औरत को कम से कम आज़ाद तो कर देते हैं। औरत को पूरी आज़ादी होती है तलाक़ के बाद दूसरी शादी करने की या अपनी मर्ज़ी से जीवन गुज़ारने की।
      हमारा प्रधानमंत्री जी से निवेदन है कि मुस्लिम बहनो की चिंता करने से पहले अपनी पत्नी की चिंता कर लें तो बेहतर होगा. हम इस्लाम के क़ानून से खुश है और एक बावक़ार ज़िन्दगी जी रहे हैं अगर आपको हमारी ये खुशाल ज़िन्दगी ज़ुल्म लगती है तो लगे हम इसी में रहना पसंद करेंगे।

Friday, 21 April 2017

World earth day

क्या हम स्वयं को विनाश की ओर धकेल सकते हैं ??


क्या कभी आपके साथ ऐसा हुआ है कि आप सड़क पर चल रहे हैं और सामने गड्ढा आपको दिख रहा हो लेकिन आपने जानबूझ कर पाँव बढ़ा कर गड्ढे में छलांग लगा दी हो ?? अवश्य आपने कभी ऐसा नहीं किया होगा तो फिर क्यों जब पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग के संकट से जूझ रही है तब क्यों हम आंखे बंद कर के प्रकृति का दोहन करके खुद को विनाश की तरफ धकेल रहे हैं ?? हम समाज में खुद का रुतबा क़ायम करने के चक्कर में इतनी अधिक मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करते हैं जिससे धरती के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है। 
           हमारी रोज़मर्रा की गतिविधि जैसे - एसी का अधिक प्रयोग, गाड़ी चलाना, पेड़ काटना इत्यादि से लगातार ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार 2015 में 60 अरब टन के बराबर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन हुआ है। सन 1970 से 2000 के बीच बीच 1.3 प्रतिशत के मुक़ाबले 2000 के बाद के वर्षों में सालाना वृद्धि दर 2.4 प्रतिशत हो गयी है। यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी नहीं की गई तो 2100 तक वैश्विक तापमान 3.7 से 8 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा।
      पेड़ों के लगातार कटने से कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा लगातार बढ़ रही है जो सूरज की गर्मी को सोख कर धरती को गर्म कर रही है। ग्लोबल वार्मिंग में 90 % योगदान मानवजनित कार्बन उत्सर्जन का है। मानक के हिसाब से एक शहर में लगभग 8 फीसदी एरिया वनों के लिए होना चाहिए लेकिन हमने निजी स्वार्थ के कारण स्तिथि यहाँ तक पहुंचा दी कि शहरों में महज दो फीसदी एरिया तक ही वन सिकुड़ कर रह गए हैं जिससे सभी जंगली जीवों से लेकर मानवजाति के अस्तित्व तक पर खतरा मंडरा रहा है। 
       आखिर कब हम चेतेंगे ?? अभी तो केवल पानी के लिए मारामारी मची हैं कहीं ऐसा ना हो के कल सांस लेने के लिए ऑक्सीजन भी खरीदनी पड़े। हर वर्ष अर्थ डे मनाया जाता है इसके अलावा भी प्रकृति बचाने के लिए तमाम दिवस मनाये जाते हैं लेकिन उससे कोई फ़ायदा नहीं होता। महज औपचारिकता ही पूरी की जाती है और यही कारण है कि इतने भाषण सुनने के बाद , इतने जागरूकता अभियान चलने के बाद भी कोई जागरूक नहीं हो सका। लेकिन अब केवल ज़ुबानी जंग से कुछ नहीं होगा क्योंकि समय हाथ से निकल चूका है। यदि अब सिर्फ एक डिग्री तापमान धरती का और बढ़ गया तो पीने का पानी ही समाप्त हो जाएगा और नासा के मुताबिक़ धरती का औसत तापमान 0.8 प्रतिशत तक बढ़ चूका है। अब भी समय है थोड़ा औपचारिकताओं से निकल कर संभलिये क्योंकि ये धरती भी हम सबकी ही है जिस तरह हम स्वयं को गड्ढे में नहीं धकेल सकते उसी तरह धरती को भी विनाश की ओर धकेलने का हमे कोई हक़ नहीं।     

Democratic awareness in women

महिलाओं में लोकतांत्रिक जागरूकता 


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Monday, 17 April 2017

divide and rule

 देश का वैचारिक विभाजन


भारतवर्ष का सदियों का इतिहास गवाह है कि यहाँ हमेशा अनेकता में एकता की संस्कृति प्रचलित रही है और यदि इतिहास की बात छोड़ भी दें तो आज के समय में भी कौन सा ऐसा त्यौहार होता है जो केवल एक ही समुदाय विशेष के लोग मनाते हों ?? हम तो उस देश के वासी हैं जहाँ होली की गुझिया चचा जुम्मन के अधूरी है और ईद की सिवई में तब तक मिठास नहीं हो सकती जब तक पड़ोस के हरी चाचा ना चख लें। यही संस्कृति भारतवासियों ने हमेशा से जानी और समझी है इसी साझी संस्कृति के साथ हम पले बढ़े हैं लेकिन ना जाने क्यों देश को अब किसी की नज़र लग गई जो देश में विचारात्मक विभाजन शुरू हो गया। जिस देश ने अनेकता में एकता की मिसाल क़ायम की थी आज वही आपको मोदी समर्थक, वाम समर्थक, संघ समर्थक, अल्पसंख्यक समर्थक इत्यादि के रूप में आपस में भिड़ते दिख जाएंगे। वैचारिक मतभेद तो हमेशा पाया जाता था और यह एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आवश्यक भी है लेकिन वैचारिक विभाजन नहीं था। 
       अब वैचारिक विभाजन इतना हावी हो गया है कि मध्यमवर्ग के युवाओं में से  देश की अवधारणा और उसकी एकता की धुरी गायब हो रही और उसकी जगह विचारधारा ने ले ली है। जबकि अंतर्राष्ट्रीय परिवेष में देखें तो हर जगह राष्ट्र के विकास को अधिक महत्त्व दिया जाता है। यह वाक़ई आर्श्यजनक है कि हमारे देश का युवा इक्कीसवीं सदी में जीने के बावजूद विकास को महत्त्व ना देकर विचारधारा के लिए लड़ रहा है। यह बहुत ही चिंताजनक स्तिथि है के देश के युवा जिनकी आयु १७ से २५ वर्ष के बीच की है वो सबसे अधिक विचारात्मक विभाजन के शिकार हैं। इसकी तुलना में अशिक्षित समुदाय आज भी वैचारिक विभाजन से मुक्त है। विश्वविद्यालयों में उदार मूल्यों को मूलाधार बनाकर जो व्यापक सामाजिक एकता या छात्र एकता विकसित की गई थी आज वो पूरी तरह से गायब है। वहां मूलयहीन चीज़ों पर एकता बढ़ी है। इससे देश के स्नातकों का सामाजिक स्तर पर अवमूल्यन हुआ है और इससे बढ़कर अफ़सोस की बात क्या हो सकती है कि समाज ने छात्रों के अंदर हुए मूल्य विघटन के सवालों पर बाते करना बंद कर दी है। क्या हम देश के भविष्य की नींव मूल्यहीन एकता पर रखना चाहते हैं ?? 

 

Wednesday, 12 April 2017

Bu Ali seena

मेडिकल साइंस का अविष्कार करने वाले पहले शख्स 'अबू  अली सीना ' 


अबू अली सीना  का पूरा नाम अली अल हुसैन बिन अब्दुल्लाह इब्न सीना  था। यह इस्लामिक जगत के महान दार्शनिक और मेडिकल साइंस क प्रथम वैज्ञानिक थे। इनका जन्म बुखारा में हुआ था मात्र १० साल की आयु में इन्होने पूरा क़ुरआन याद कर लिया था। 
     एक बार बुखारा क सुल्तान नूह इब्न मंसूर बीमार हो गए किसी भी हकीम की दवा कारगर साबित नहीं हुई तब केवल १८ साल की उम्र में बू अली सिना ने उनका इलाज किया। जब सुल्तान ठीक हो गए तो उन्होंने खुश होकर इब्न सिना को एक लाइब्रेरी खुलवा कर दी। इब्न सीना बहुत ही तेज़ दिमाग के थे उन्होंने बहुत जल्द ही पूरा पुस्तकालय छान मारा और ज़रूरी जानकारी इकठ्ठा कर ली और महज २१ वर्ष की आयु में अपनी पहली किताब लिख डाली। उन्होंने सबसे पहले पानी के द्वारा बीमारियों के फैलने का पता लगाया। anotomy की खोज उन्होंने ही की। 
   उनकी किताब अल कानून चिकित्सा की एक मशहूर किताब है जिसका अनुवाद बहुत सी भाषाओं में हो चुका। है। 19 वीं शताब्दी के अंत तक 'अल कानून ' यूरोप की यूनिवर्सिटीज में पढाई जाती थी। उन्होंने लगभग 46 किताबें लिखी हैं जिनमे गणित की 6 किताबे आज भी मौजूद हैं। उन्होंने मुख्य रूप से इन विषयों पर किताबें लिखीं - एस्ट्रोनॉमी , अल्केमी (alchemy),जियोग्राफी और जियोलॉजी , साइकोलॉजी , इस्लामिक थिओलोजी, लॉजिक, मैथमैटिक्स, फिजिक्स और पोएट्री। 
     उनकी वैज्ञानिक सेवाओं को देखते हुए यूरोप में उनके नाम से डाक टिकट भी जारी किये। 

Thursday, 6 April 2017

Aflatoon

हमारे यहाँ साधारण बोलचाल में अक्सर अफलातून का उदाहरण दिया जाता है। कोई व्यक्ति अपना बड़प्पन दिखा रहा तो कहा जाएगा के 'अरे वो तो खुद को अफलातून समझने लगा है ' तो कभी किसी से लड़ाई हो रही होगी तो सुनने में आएगा के 'अफलातून थोड़ी हो' कुल मिलाकर 'अफलातून' हमारी बोली का एक हिस्सा है. क्या आप जानते हैं क अफलातून थे कौन???
       यूनानी दार्शनिक 'अफलातून' का जन्म ४२३ पूर्व ईसवी में एगिना में हुआ था। उनके पिता का नाम अरिस्टोन और माता का नाम परक्षिटोन था। अफलातून वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने स्कूल की स्थापना की जिसे उस समय अकेडमी कहा जाता था। वह खुद को सुकरात का शिष्य मानते थे। जब सुकरात को मौत की सजा दी गई उस समय अफलातून युवा नौजवान थे। सुकरात की मौत ने अफलातून क दर्शन पर गहरा असर छोड़ा। मशहूर दार्शनिक अरस्तु भी अफलातून के शिष्य रहे हैं वह अफलातून की अकादमी में पढ़े थे।
           अफलातून के पास हर दिन कई विद्वान का जमावड़ा लगा रहता था सभी उनसे कुछ न कुछ सीखने आते थे लेकिन स्वयं अफलातून खुद को कभी ज्ञानी नहीं मानते थे क्योंकि उनका मानना  था के इंसान कभी भी ज्ञानी कैसे हो सकता है जबकि वह हमेशा कुछ न कुछ सीखता रहता है। उनका एक कथन है ''काम को जल्दी पूरा करने की कोशिश मत करो बल्कि बेहतर तरीके से अंजाम देने की कोशिश करो। लोग यह न पूछेंगे के तुमने काम कितने समय में किया, वह तो तुम्हारे काम की बेहतरी को देखेंगे''
         

Monday, 3 April 2017

tawakkol karaman

       'तवक्कुल कारमान' महिला सशक्तिकरण का प्रतीक 

           
यमन की प्रसिद्ध महिला अधिकार कार्यकर्त्ता तवक्कुल करमान ने 2011 का नोबल शांति पुरस्कार जीत कर एक मिसाल क़ायम कर दी। वह पहली मुस्लिम महिला हैं जिन्हें नोबल मिला। यमन में उन्होंने महिला अधिकारों के लिए बहुत संघर्ष किया जिस कारण उन्हें mother of revolution यानि यमन में  क्रांति की माँ कहा जाता है। उनका एक प्रसिद्ध वाक्य है 'the night must come to an end' ..   उन्होंने 2005 में एक पत्रकार के रूप में अपने करियर की शुरुआत की। पुरानी परम्पराओं को तोड़ उन्होंने कलरफुल हिजाब पहनना शुरू किया जिस कारण उन्हें कट्टरपंथियों की आलोचना भी झेलनी पड़ी।
                आज के दौर में वह महिलाओं के लिए  एक प्रेरणा हैं। और पुरुषवादी सत्ता के लिए एक सबक जो महिलाओं को दोयम दर्जे का समझते हैं।  

Tuesday, 28 March 2017

U.P GOVERMENT

यू.पी का योगी स्टाइल......एक समीक्षा 

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बने जुम्मा जुम्मा चार दिन भी नहीं हुए हैं और उनके कामकाज के तौर तरीकों पर संदेह और सवाल उठने लगे हैं। मुख्यमंत्री बनते ही उनका सख्त रुख उनके प्रशंसकों के लिए उम्मीद की नई किरन लाया है तो विरोधियों के लिए चिंता खड़ी कर दी है। 
        उनका काम करने का तरीक़ा और कड़े तेवर यह दर्शाते हैं कि वह 2019 को ध्यान में रख कर सत्ता की कुर्सी संभाल रहे हैं। उनके ऊपर काम को कर दिखने का प्रेशर है यह प्रेशर इसलिए और भी बढ़ जाता है क्योकि अखिलेश यादव 2012 में बहुमत के साथ सत्ता में आये थे लेकिन 2014 लोकसभा में उन्हें केवल पांच सीट ही मिल सकी थी और अब बीजेपी प्रचंड बहुमत से आई है एवं दो साल बाद लोकसभा चुनाव है। 
         योगी ने अभी तक जो भी फैसले लिए हैं वो केवल चेतावनी के रूप में हैं लेकिन उनको यह समझना होगा कि केवल चेतावनी देने भर से काम नहीं चलने वाला। योगी सरकार की सबसे बड़ी चुनौती है प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था को दुरुस्त करना। यू पी में प्रशासन की ज़मीनी स्तिथि की प्रमुख समस्या यह है  के स्टाफ की बहुत कमी है। एक एक पंचायत सचिव के पास 6 से 7 ग्राम सभाओं का चार्ज है। एक एक बी डी ओ के पास तीन तीन ब्लॉक  का चार्ज है। तहसीलदार नहीं है तो इनकी वजह से बहुत सारी विकास योजनाओं का पैसा खर्च नहीं होता या स्कीम ठीक से लागू नहीं हो पाती  या भ्र्ष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है।
      इसी प्रकार शिक्षा विभाग में टीचर्स के लाखों पद खाली पड़े हैं,पुलिस विभाग में भी एक लाख  पद खाली हैं। इनकी भर्तियों  पर ध्यान देना आवश्यक है। तभी कुछ हद तक सुशासन हो सकेगा अन्यथा सरकारें आती हैं और कब माज़ी बन जाती हैं पता ही नहीं चलता। 

Thursday, 16 March 2017

assembly election

जब से ईवीएम का इस्तेमाल शुरू हुआ है तभी से इस पर विवाद देखने  को मिल जाते हैं। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई क़ुरैशी के अनुसार ईवीएम में गड़बड़ी की कोई गुंजाईश ही नहीं होती और इस पर संदेह इस लिए भी नहीं होना चाहिए क्योंकि इसे अदालत से क्लीन चिट मिली हुई है। फिर भी जिस तरह उत्तर प्रदेश में बसपा प्रमुख मायावती ईवीएम पर सवालिया निशान खड़ा कर रही हैं और उनका साथ सभी हारी हुई पार्टी के सदस्य दे रहे हैं वो अत्यंत हास्यजनक  दिखाई पड़ता है क्योंकि जो लोग आरोप लगा रहे हैं कहीं न कहीं वो भी ईवीएम के सहारे ही चुनाव जीत सत्ता के गलियारे तक पहुँचे हैं। 
          आज ही के अखबार में एक खबर छपी है कि उत्तर प्रदेश के कानपूर शहर में जिन दो सीटों पर बीजेपी चुनाव हारी हैं उन दोनों विधानसभाओं से बीजेपी ने पार्टी के 71 भितरघातियों के नाम की सूची तैयार कर ली है उनपर कार्रवाई होगी। इसे कहते हैं दूरंदेशी। बीजेपी की ४ राज्यों में सरकार बनने के बावजूद वो छोटे स्तर पर हार की इस तरह समीक्षा कर रही है जो वाक़ई क़ाबिल ए तारीफ है। बेहतर होता के मायावती भी अपनी हार क़ुबूल कर हार की समीक्षा कर भविष्य की रणनीति तैयार करतीं। 

ज़िंदगी सड़क किनारे की..

पिछले कई वर्षों में हमारे देश ने दुनिया में अपना नाम और कद दोनो ऊंचा किया है़, विकास के नाम पर ऊंची ऊंची आलीशान इमारतें, चौड़ी-चौड़ी ...